बेबस पेड़
सुशील
सदाबहारों में गिने, जाते हैं जो पेड़ |
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काव्यमयी प्रस्तावना, मन गलगल गुगलाय ।
शब्दों का यह तारतम्य, रहा गजब है ढाय ।
रहा गजब है ढाय, बोलते हैप्पी बड्डे ।
घर घर बनते जाँय, अति मनोरंजक अड्डे ।
मानव जीता जगत, किन्तु गूगल से हारा ।
गूगल जयजयकार, तुम्ही इक मात्र सहारा ।
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ख्वाब तुम पलो पलो
expression
बढ़ता नन्हा कदम है, मातु-पिता जब संग ।
लेकिन तन्हा कदम पर, तुम बिन लगती जंग ।
तुम बिन लगती जंग, तंग करती है दूरी ।
जीतूँ जीवन-जंग, उपस्थिति बड़ी जरुरी ।
थामे कृष्णा हाथ, प्यार का ज्वर चढ़ जाए ।
छलिये चलिए साथ, कभी आ बिना बुलाये ।।
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‘रेणु’ से ‘दलित’ तकअरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ)सियानी गोठ
जनकवि स्व.कोदूराम “दलित”
अरुण निगम के पिताजी, श्रेष्ठ दलित कविराज |उनकी कविता कुंडली, पढता रहा समाज | पढता रहा समाज, आज भी हैं प्रासंगिक | देशभक्ति के मन्त्र, गाँव पर लिख सर्वाधिक || छत्तिसगढ़ का प्रांत, आज छू रहा ऊंचाई | जय जय जय कवि दलित, बड़ी आभार बधाई || |
साधना शब्दों की ... !!!
सदा
गुरुजन के आशीष से, जानो शब्द रहस्य | शब्द अनंत असीम हैं, क्रमश: मिलें अवश्य | क्रमश: मिलें अवश्य, किन्तु आलस्य नहीं कर | कर इनका सम्मान, भरो झोली पा अवसर | फिर करना कल्याण, लोक हित सर्व समर्पन | रे साधक ले साध, दिखाएँ रस्ता गुरुजन || |
बिना घोटाले के भी देश की बैंड बजायी जा सकती है!शीश घुटाले प्यार से, टोपी दे पहनाय | गुलछर्रे के वास्ते, लेते टूर बनाय | लेते टूर बनाय, काण्ड कांडा से करते | चूना रहे लगाय, नहीं ईश्वर से डरते | सात हजारी थाल, करोड़ों यात्रा भत्ता | मौज करें अलमस्त, बाप की प्यारी सत्ता || |
रचना जब विध्वंसक हो !विध्वंसक-निर्माण का, नया चलेगा दौर ।नव रचनाओं से सजे, धरती चंदा सौर । धरती चंदा सौर, नए जोड़े बन जाएँ । नदियाँ चढ़ें पहाड़, कोयला कोयल खाएं । होने दो विध्वंस, खुदा का करम दिखाते । धरिये मन संतोष, नई सी रचना लाते ।। |
Bahut hi lajawab prastuti...sare links umda....
ReplyDeleteSadar naman.
सबसे ऊपर जब उल्लूक बैठाया
ReplyDeleteशाख से कौन फिर कुछ कह पाया !!
कुडलियों से सजीं लिंक्स अचची लगीं । जाती हूँ इन पर । मुझे भी इन महानुभावों में सम्मिलित करने का आभार ।
ReplyDeleteकृपया अच्छी पढें ।
ReplyDeleteकलम विरासत में मिली , हुई जिंदगी धन्य
ReplyDeleteऔर भला क्या चाहिये , तन मन है चैतन्य
तन मन है चैतन्य , करूँ नित साहित सेवा
भाव श्वाँस बन जाय,मिले नित शब्द-कलेवा
रहे आखरी साँस तलक , लिखने की आदत
गर्व स्वयं पर करूँ ,मिली है कलम विरासत ||
बहुत सुन्दर रविकर जी....
ReplyDeleteहमारी कविता को अपनी टिप्पणी से सुशोभित करने का शुक्रिया..
सादर
अनु