@ उजबक गोठ
अगिनत रवि-किरणें रहीं, शशि-किरणों सह खेल ।
इक रविकर इस देह पर, क्या कर सके अकेल ?
क्या कर सके अकेल, कृपा गुरुजन की होवे ।
सिक्का एक अधेल, गिरा मिट्टी में खोवे ।
गुरुवर देते मन्त्र, गिरा पा जाती सुम्मत ।
जौ-जौ आगर जगत, बसे रविकर से अगिनत ।।
गिरा=वाणी
जौ-जौ आगर जगत=एक से बढ़कर एक
तुलसी हैं शशि सूर रवि, केशव खुद खद्योत ।
रविकर थोथे चने सम, झाड़ बढ़े बिन जोत ।
झाड़ बढ़े बिन जोत, घना लगता है बजने ।
अजब झाड़-झंखाड़, भाव बिन लगे उपजने ।उर्वर पद-रज पाय, खाय मन-पादप हुलसी । रविकर तो एकांश, शंखपति कविवर तुलसी ।।
शंख=10000000000000
शंख के स्वर और
थोथे चने के स्वर में जमीं-आस्मां का अंतर है-
उर्वर पद-रज=चरणों की धूल रूपी उर्वरक
बिन जोत=बिना जुताई किये / बिना ज्योति के
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ब्लॉग दीप को भेंटता, घृत रूपी आशीष |
सोच सार्थक हो सके, करहु कृपा जगदीश | |
शुभ दीपावलीnirdosh dixit स्वागत अंतिम अंतरिम, आदत कहें विकल्प | हाथ गहे यह अंतत:, सोच थामती स्वल्प | सोच थामती स्वल्प, मगर शक्लें कुछ ऐसी | सुन्दर सुमुख सयान, चिड-चिड़ी तेरे जैसी | कभी पदोन्नति जन्म, लाटरी कबहूँ लागत | एक एक कर कई, पैग पी जाते स्वागत || |
हुक्का-हाकिम हुक्म दे, नहीं पटाखा फोर ।
इस कुटीर उद्योग का, रख बारूद बटोर ।
रख बारूद बटोर, इन्हीं से बम्ब बनाना ।
एक शाम इक साथ, प्रदूषण क्यूँ फैलाना ?
मारे कीट-विषाणु, तीर नहिं रविकर तुक्का ।
ताश बैठ के खेल, खींच के दो कश हुक्का ।
दूर पटाखे से रहो, कहते हैं श्रीमान ।
जनरेटर ए सी चले, कर गुडनाइट ऑन ।
कर गुडनाइट ऑन, ताश की गड्डी फेंटे ।
किन्तु एकश: आय, नहीं विष-वर्षा मेंटे ।
गर गंधक तेज़ाब, नहीं सह पाती आँखे ।
रविकर अन्दर बैठ, फोड़ तू दूर पटाखे ।।
डेंगू-डेंगा सम जमा, तरह तरह के कीट |
खूब पटाखे दागिए, मार विषाणु घसीट |
मार विषाणु घसीट, एक दिन का यह उपक्रम |
मना एकश: पर्व, दिखा दे दुर्दम दम-ख़म |
लौ में लोलुप-लोप, धुँआ कल्याण करेगा |
सह बारूदी गंध, मिटा दे डेंगू-डेंगा ||
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दूल्हे का घोड़ा
दूल्हे का घोड़ा कहा, हो साइस नाराज | भैया क्यूँ थोड़ा कहा, अब तो आओ बाज | अब तो आओ बाज, खाज शादी की होती | नहीं गिराओ गाज, चमक चेहरे की खोती || होता नहिं एतराज, गधा घोड़ा बैठाओ | करिए तनिक इलाज, मुझे दुल्हा बनवाओ || स्मृति-दीप
संस्मरण आकांक्षा, शब्द शब्द शुभ दीप |
प्रियजन रहते हैं सदा, अपने हृदय समीप || |
गिरे रुपैया गाँठ का, होवे नींद हराम ।
असर दीखता देह पर, बिगड़े काम तमाम ।
बिगड़े काम तमाम, किन्तु देखो यह मस्ती ।
मस्ती मारें राम, जले चाहे यह बस्ती ।
करे पार्टी डांस, विदेशी दौरे भैया ।
डॉलर प्रति दिन चढ़े, हमारा गिरे रुपैया ।।
आलू यहाँ उबाले कोई |
खाये बना पराठे कोई || ताका-तका तकाते तो थे- सोणी हटुक भगाले कोई | दूधक जला फुंकाए छाछो जल से गला जलाले कोई | करता जमा खजाना हीरो - आकर उसे चुरा ले कोई || होते गये तिहाड़ी मंत्री सत्ता मगर बचा ले कोई || रविकर कलम घसीटे नियमित गुनगुन गुना गुना ले कोई || |
रवि की किरणें दे रहीं, जग को जीवन दान।
ReplyDeleteपाकर धवल प्रकाश को, मिल जाता गुण-ज्ञान।।
दूधक जला फुंकाए छाछो
ReplyDeletesundar vichar जल से गला जलाले कोई |
करता जमा खजाना हीरो -
आकर उसे चुरा ले कोई ||
होते गये तिहाड़ी मंत्री
सत्ता मगर बचा ले कोई ||
डॉलर प्रति दिन चढ़े, हमारा गिरे रुपैया-
ReplyDeleteगिरे रुपैया गाँठ का, होवे नींद हराम ।
असर दीखता देह पर, बिगड़े काम तमाम ।
बिगड़े काम तमाम, किन्तु देखो यह मस्ती ।
मस्ती मारें राम, जले चाहे यह बस्ती ।
करे पार्टी डांस, विदेशी दौरे भैया ।
डॉलर प्रति दिन चढ़े, हमारा गिरे रुपैया ।।
आलू यहाँ उबाले कोई |
खाये बना पराठे कोई ||
ताका-तका तकाते तो थे-
सोणी हटुक भगाले कोई |
दूधक जला फुंकाए छाछो
जल से गला जलाले कोई |
करता जमा खजाना हीरो -
आकर उसे चुरा ले कोई ||
होते गये तिहाड़ी मंत्री
सत्ता मगर बचा ले कोई ||
रविकर कलम घसीटे नियमित
गुनगुन गुना गुना ले कोई ||
बहुत बढ़िया है सर !एक से बढ़के काव्य टिप्पणियाँ .
ReplyDeleteउमा शंकर जी ,जो दूसरे की ख़ुशी में ,दूसरे की श्रेष्ठता से प्रभावित हो नांच नहीं सकता वह सचमुच बड़ा अभागा है .ये दोनों और आप
भी
ब्लॉग जगत के नगीने हैं .रविकर जी को अक्सर हमने भी रविकर दिनकर कहा है ,गिरधर की कुण्डलियाँ जब तब ताज़ा हुईं हैं रविकर
जी
को पढ़के एक माधुरी अरुण निगम जी के दोहों में कुंडलियों में एक खनक गजब की गेयता व्याप्त है जो विमुग्ध करती है पाठक को
,तनाव भी कम करती है .दोहे तो अपनी छोटी सी काया में पूरा अर्थ विस्तार लिए होतें हैं जीवन का सार संगीत की खनक लिए होते हैं
.सहमत आपसे जो भी लिखा है आपने .डर यही है विनम्रता में दोहरे होते रविकर जी इस अप्रत्याशित प्रशंसा को पचा भी पायेंगे .एक
तुलसी हैं शशि सूर रवि, केशव खुद खद्योत ।
ReplyDeleteरविकर थोथे चने सम, झाड़ बढ़े बिन जोत ।
झाड़ बढ़े बिन जोत, घना लगता है बजने ।
अजब झाड़-झंखाड़, भाव बिन लगे उपजने ।
उर्वर पद-रज पाय, खाय मन-पादप हुलसी ।
रविकर तो एकांश, शंखपति कविवर तुलसी |
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"राजा"- बेटा माँ कहे , "हीरा" बोलें तात ।
"प्रतुल" प्रेम में कर गए , शब्दों की बरसात ।।
बढिया लिंक
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी प्रस्तुति।
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