Saturday, 3 November 2012

शब्द होंय लयबद्ध जब, बन जाते हैं मन्त्र-




थोड़ी बात करें ज़िन्दगी की!

मनोज कुमार  

स्वर्ण अशरफ़ी सा रखो, रिश्ते हृदय संजोय । 
 हृदय-तंतु संवेदना, कहीं जाय ना खोय ।
कहीं जाय ना खोय, गगन में पंख पसारो ।
उड़ उड़ ऊपर जाय, धरा को किन्तु निहारो ।
 रिश्ते सभी निभाय, रहें नहिं केवल हरफ़ी 
 कहीं जाय ना खोय, हमारी स्वर्ण अशरफ़ी ।।

परिहास 
जली कटी देती सुना, महीने में दो चार ।
 तुम तो भूखी एक दिन, सैंयाँ बारम्बार ।
सैंयाँ बारम्बार, तुम्हारे व्रत की माया । 
सौ प्रतिशत अति शुद्ध, प्रेम-विश्वास समाया ।
रविकर फांके खीज, गालियाँ भूख-लटी दे । 
कैसे मांगे दम्भ, रोटियां जली कटी दे ।।

सइयाँ इंगलिश बार में, मजे लूटकर आयँ
छोटी-छोटी बात पर
,सजनी से लड़ जायँ
सजनी से लड़ जायँ
,कहे हैं जली रोटियाँ
आलू का बस झोल
, कहाँ हैं तली बोटियाँ
जब सजनी गुर्राय
,लपक कर पड़ते पइयाँ
मजे लूटकर आयँ
, इंगलिश बार से सइयाँ ||
2.
हँसके काटो चार दिन,मत दिखलाओ तैश
बाकी के  छब्बीस  दिन ,  होगी  प्यारे  ऐश
होगी प्यारे ऐश , दुखों का प्रतिशत कम है
सात जनम का साथ ,रास्ता बड़ा विषम है
पाओगे सुख-धाम ,उन्हीं जुल्फों में फँस के
मत दिखलाओ तैश,चार दिन काटो हँसके ||

सारा यह झूठा प्रपंच,  फैलाई अफवाह ।
रविकर हनुमत भक्त है, चलता सीधी राह ।
चलता सीधी राह, किया मंदिर में दर्शन ।
खाया तनिक प्रसाद, घेर लेते कुछ दुर्जन ।
ठेला ठेली करें, गले पे चाक़ू धारा।
 कपड़ों पर ढरकाय, तमाशा करते सारा ।। 

--और है ; लिंक पर जाएँ --

शब्द रे शब्द, तेरा अर्थ कैसा

mahendra verma 
शब्द अलग से दीखते, रहते अगर स्वतंत्र ।
यही होंय लयबद्ध जब, बन जाते हैं मन्त्र ।
 बन जाते हैं मन्त्र , काल सन्दर्भ मनस्थिति ।
विश्लेषक की बुद्धि, अगर विपरीत परिस्थिति ।
होवे अर्थ अनर्थ, शान्ति मिट जाए जग से ।
कोलाहल ही होय, सुने नहिं शब्द अलग से ।।
शत्रु-शस्त्र से सौ गुना, संहारक परिमाण ।
शब्द-वाण विष से बुझे, मित्र हरे झट प्राण ।
मित्र हरे झट प्राण, शब्द जब स्नेहसिक्त हों ।
जी उठता इंसान, भाव से रहा रिक्त हो ।
आदरणीय आभार, चित्र यह बढ़िया खींचा ।
शब्दों का जल-कोष, मरुस्थल को भी सींचा ।। 

 ram ram bhai
खुला खेल खेला किये, वाह फरुक्खाबाद |
देश अपाहिज झेलता, नाजायज औलाद |
नाजायज औलाद, निकाला काला मुँह कर |
पर कानून विदेश, वजारत करता रविकर |
मान रहा सलमान, काम अपना कर प्यारे |
मनमोहनी सलाह, लुटेरे चौकस सारे ||

सर्ग-5 : भगवती शांता इति

श्री राम की सहोदरी : भगवती शांता 

मत्तगयन्द सवैया 

संभव संतति संभृत संप्रिय, शंभु-सती सकती सतसंगा ।
संभव वर्षण  कर्षण कर्षक, होय अकाल पढ़ो मन-चंगा ।
पूर्ण कथा कर कोंछन डार, कुटुम्बन फूल फले सत-रंगा ।
स्नेह समर्पित खीर करो, कुल कष्ट हरे बहिना हर अंगा ।।

जय जय भगवती शांता परम

 



छत्तीसगढ़ वंदना

अरुण कुमार निगम  
बन्दौं दलित कवित्त मनोहर |
प्रिय लागे ज्यूँ गाये सोहर |
मंगल मंगल भली कामना |
छत्तीस गढ़ की प्रेम भावना |


सदा प्रांत यह बढ़ता जाए |
भारत को सद्मार्ग दिखाए |
सरल सौम्य हैं लोग यहाँ के |
नहीं व्यर्थ की गाथा हाँके |


बहुत बहुत आभार  निगम जी |
पोस्ट पिता का पढ़ते हम जी ||

4 comments:

  1. बहुत बढ़िया!
    आपके कवित्त-कुण्डलियाँ लाजवाब हैं!

    ReplyDelete
  2. लाजवाब कुण्डलियाँ ..आभार!

    ReplyDelete
  3. जली कटी देती सुना, महीने में दो चार ।
    तुम तो भूखी एक दिन, सैंयाँ बारम्बार ।
    सैंयाँ बारम्बार, तुम्हारे व्रत की माया ।
    सौ प्रतिशत अति शुद्ध, प्रेम-विश्वास समाया ।
    रविकर फांके खीज, गालियाँ भूख-लटी दे ।
    कैसे मांगे दम्भ, रोटियां जली कटी दे ।।
    सैंय्या को भूखे ही मरना बारम्बार ,
    इसलिए भगवान को मना कर करुं मनुहार

    ReplyDelete
  4. आपके हाथों सम्मानित होना किसी पुरस्कार से कम नहीं है।

    ReplyDelete