तुलसी हैं शशि सूर रवि, केशव खुद खद्योत ।
रविकर थोथे चने सम, झाड़ बढ़े बिन जोत ।
झाड़ बढ़े बिन जोत, घना लगता है बजने ।
अजब झाड़-झंखाड़, भाव बिन लगे उपजने ।
उर्वर पद-रज पाय, खाय मन-पादप हुलसी ।
रविकर तो एकांश, शंखपति कविवर तुलसी ।।
शंख=100000000000
शंख के स्वर और
थोथे चने के स्वर में जमीं-आस्मां का अंतर है-
उर्वर पद-रज=चरणों की धूल रूपी उर्वरक
बिन जोत=बिना जुताई किये / बिना ज्योति के
शुभकामनायें
दीपावली 2012
त्योहारों की टाइमिंग, हतप्रभ हुआ विदेश ।
चौमासा बीता नहीं, आ जाता सन्देश ।
आ जाता सन्देश, घरों की रंग-पुताई ।
सजे नगर पथ ग्राम, नई दुल्हन की नाई ।
सब में नव उत्साह, दिशाएँ हर्षित चारों ।
लम्बी यह श्रृंखला, करूँ स्वागत त्योहारों ।।
बीत गया भीगा चौमासा । उर्वर धरती बढती आशा ।
त्योहारों का मौसम आये। सेठ अशर्फी लाल भुलाए ।
विघ्नविनाशक गणपति देवा। लडुवन का कर रहे कलेवा
माँ दुर्गे नवरात्रि आये । धूम धाम से देश मनाये ।
विजया बीती करवा आया । पत्नी भूखी गिफ्ट थमाया ।
जमा जुआड़ी चौसर ताशा । फेंके पाशा बदली भाषा ।।
दीवाली का अर्थ है, अर्थजात का पर्व |
अर्थकृच्छ कैसे करे, दीवाले पे गर्व ||
अर्थजात = अमीर
अर्थकृच्छ =गरीब
एकादशी रमा की आई । वीणा बाग़-द्वादशी गाई ।
धनतेरस को धातु खरीदें । नई नई जागी उम्मीदें ।
धन्वन्तरि की जय जय बोले । तन मन बुद्धि निरोगी होले ।
काली माता खप्पर वाली । लक्ष्मी पूजा मने दिवाली ।।
झालर दीपक बल्ब लगाते । फोड़ें बम फुलझड़ी चलाते ।
खाते कुल पकवान खिलाते । एक साथ सब मिलें मनाते ।
लाल अशर्फी फड़ पर बैठी | रहती लेकिन किस्मत ऐंठी ।
फिर आया जमघंट बीतता | बर्बादी ही जुआ जीतता ।।
लाल अशर्फी होती काली | कौड़ी कौड़ी हुई दिवाली ।
भ्रात द्वितीया बहना करती | सकल बलाएँ पीड़ा हरती ।
चित्रगुप्त की पूजा देखा । प्रस्तुत हो घाटे का लेखा ।
सूर्य देवता की अब बारी। छठ पूजा की हो तैयारी ।।
देह देहरी देहरे, दो, दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, कुल अघ-तम दहकाय ।
कुल अघ तम दहकाय , दीप दस घूर नरदहा ।
गली द्वार पिछवाड़ , खेत खलिहान लहलहा ।
देवि लक्षि आगमन, विराजो सदा केहरी ।
सुख सामृद्ध सौहार्द, बसे कुल देह देहरी ।।
देह, देहरी, देहरे = काया, द्वार, देवालय
घूर = कूड़ा
लक्षि = लक्ष्मी
डेंगू-डेंगा सम जमा, तरह तरह के कीट |
खूब पटाखे दागिए, मार विषाणु घसीट |
मार विषाणु घसीट, एक दिन का यह उपक्रम |
मना एकश: पर्व, दिखा दे दुर्दम दम-ख़म |
लौ में लोलुप-लोप, धुँआ कल्याण करेगा |
सह बारूदी गंध, मिटा दे डेंगू-डेंगा ||
किरीट सवैया ( S I I X 8 )
झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ घर-बाहर ।
दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।
दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।
नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव हे शिव-शंकर ।।
कुण्डलियाँ-2
32 x 365 दिन =11680/-
बत्तीसा जोडूं अगर, ग्यारह नोट हजार ।
इक पल में वे फूंकते, पर हम तो लाचार ।
पर हम तो लाचार, चार लोगों का खाना ।
मँहगाई की मार, कठिन है दिया जलाना ।
केरोसिन अनुदान, जमाया रत्ती रत्ती ।
इक के बदले चार, बाल-कर रक्खूँ बत्ती ।।
एक लगाता दांव पर, नव रईस अवतार ।
रोज दिवाली ले मना, करके गुने हजार ।।
लगा टके पर टकटकी, लूँ चमचे में तेल ।
माड़-भात में दूँ चुवा, करती जीभ कुलेल ।
करती जीभ कुलेल, वहाँ चमचे का पावर ।
मिले टके में कुँआ, खनिज मोबाइल टावर ।
दीवाली में सजा, सितारे दे बंगले पर ।
भोगे रविकर सजा, लगी टकटकी टके पर ।।
दोहे
दे कुटीर उद्योग फिर, ग्रामीणों को काम ।
चाक चकाचक चटुक चल, स्वालंबन पैगाम ।।
हर्षित होता अत्यधिक, कुटिया में जब दीप ।
विषम परिस्थिति में पढ़े, बच्चे बैठ समीप ।।
माटी की इस देह से, खाटी खुश्बू पाय ।
तन मन दिल चैतन्य हो, प्राकृत जग हरषाय ।।
बाता-बाती मनुज की, बाँट-बूँट में व्यस्त ।
बाती बँटते नहिं दिखे, अपने में ही मस्त ।।
अँधियारा अतिशय बढ़े , मन में नहीं उजास ।
भीड़-भाड़ से भगे तब, गाँव करे परिहास ।।
रो ले ऐ अन्धेर तू, ख़त्म आज साम्राज्य ।
प्रेम नेम से बट रहा, घृणा द्वेष अघ त्याज्य ।
घृणा द्वेष अघ त्याज्य, अमावस यह अति पावन ।
स्वागत है श्री राम, आइये पाप नशावन ।
धूम आज सर्वत्र, यहाँ भी देवी हो ले ।
सुख सामृद्ध सौहार्द, दान दे पढ़कर रोले ।
दीवाली में जुआ
मीत समीप दिखाय रहे कुछ दूर खड़े समझावत हैं ।
बूझ सकूँ नहिं सैन सखे तब हाथ गहे लइ जावत हैं ।
जाग रहे कुल रात सबै, हठ चौसर में फंसवावत हैं ।
हार गया घरबार सभी, फिर भी शठ मीत कहावत हैं ।।
डोरे डाले आज फिर, किन्तु जुआरी जात ।
गृह लक्ष्मी करती जतन, पर खाती नित मात ।
पर खाती नित मात, पूजती लक्षि-गणेशा ।
पांच मिनट की बोल, निकलता दुष्ट हमेशा ।
खेले सारी रात, लौटता बुद्धू भोरे ।
जेब तंग, तन ढील, आँख में रक्तिम डोरे ।।
तुलसी हैं शशि सूर रवि, केशव खुद खद्योत ।
रविकर थोथे चने सम, झाड़ बढ़े बिन जोत ।
उर्वर पद-रज पाय, खाय मन-पादप हुलसी ।
रविकर तो एकांश, शंखपति कविवर तुलसी ।।
रविकर थोथे चने सम, झाड़ बढ़े बिन जोत ।
झाड़ बढ़े बिन जोत, घना लगता है बजने ।
अजब झाड़-झंखाड़, भाव बिन लगे उपजने ।उर्वर पद-रज पाय, खाय मन-पादप हुलसी ।
रविकर तो एकांश, शंखपति कविवर तुलसी ।।
शंख=100000000000
शंख के स्वर और
थोथे चने के स्वर में जमीं-आस्मां का अंतर है-
उर्वर पद-रज=चरणों की धूल रूपी उर्वरक
बिन जोत=बिना जुताई किये / बिना ज्योति के
|
त्योहारों की टाइमिंग, हतप्रभ हुआ विदेश ।
चौमासा बीता नहीं, आ जाता सन्देश ।
आ जाता सन्देश, घरों की रंग-पुताई ।
सजे नगर पथ ग्राम, नई दुल्हन की नाई ।
सब में नव उत्साह, दिशाएँ हर्षित चारों ।
लम्बी यह श्रृंखला, करूँ स्वागत त्योहारों ।।
दीवाली का अर्थ है, अर्थजात का पर्व |
अर्थकृच्छ कैसे करे, दीवाले पे गर्व ||
अर्थजात = अमीर
अर्थकृच्छ =गरीब
|
देह देहरी देहरे, दो, दो दिया जलाय ।
कर उजेर मन गर्भ-गृह, कुल अघ-तम दहकाय ।
कुल अघ तम दहकाय , दीप दस घूर नरदहा ।
गली द्वार पिछवाड़ , खेत खलिहान लहलहा ।
देवि लक्षि आगमन, विराजो सदा केहरी ।
सुख सामृद्ध सौहार्द, बसे कुल देह देहरी ।।
देह, देहरी, देहरे = काया, द्वार, देवालय
घूर = कूड़ा
लक्षि = लक्ष्मी
डेंगू-डेंगा सम जमा, तरह तरह के कीट |
खूब पटाखे दागिए, मार विषाणु घसीट |
मार विषाणु घसीट, एक दिन का यह उपक्रम |
मना एकश: पर्व, दिखा दे दुर्दम दम-ख़म |
लौ में लोलुप-लोप, धुँआ कल्याण करेगा |
सह बारूदी गंध, मिटा दे डेंगू-डेंगा ||
|
किरीट सवैया ( S I I X 8 )
झल्कत झालर झंकृत झालर झांझ सुहावन रौ घर-बाहर ।
दीप बले बहु बल्ब जले तब आतिशबाजि चलाय भयंकर ।
दाग रहे खलु भाग रहे विष-कीट पतंग जले घनचक्कर ।
नाच रहे खुश बाल धमाल करे मनु तांडव हे शिव-शंकर ।।
|
कुण्डलियाँ-2
32 x 365 दिन =11680/-
बत्तीसा जोडूं अगर, ग्यारह नोट हजार ।
इक पल में वे फूंकते, पर हम तो लाचार ।
पर हम तो लाचार, चार लोगों का खाना ।
मँहगाई की मार, कठिन है दिया जलाना ।
केरोसिन अनुदान, जमाया रत्ती रत्ती ।
इक के बदले चार, बाल-कर रक्खूँ बत्ती ।।
एक लगाता दांव पर, नव रईस अवतार ।
रोज दिवाली ले मना, करके गुने हजार ।।
लगा टके पर टकटकी, लूँ चमचे में तेल ।
माड़-भात में दूँ चुवा, करती जीभ कुलेल ।
करती जीभ कुलेल, वहाँ चमचे का पावर ।
मिले टके में कुँआ, खनिज मोबाइल टावर ।
दीवाली में सजा, सितारे दे बंगले पर ।
भोगे रविकर सजा, लगी टकटकी टके पर ।।
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दोहे
दे कुटीर उद्योग फिर, ग्रामीणों को काम ।
चाक चकाचक चटुक चल, स्वालंबन पैगाम ।।
हर्षित होता अत्यधिक, कुटिया में जब दीप ।
विषम परिस्थिति में पढ़े, बच्चे बैठ समीप ।।
माटी की इस देह से, खाटी खुश्बू पाय ।
तन मन दिल चैतन्य हो, प्राकृत जग हरषाय ।।
बाता-बाती मनुज की, बाँट-बूँट में व्यस्त ।
बाती बँटते नहिं दिखे, अपने में ही मस्त ।।
अँधियारा अतिशय बढ़े , मन में नहीं उजास ।
भीड़-भाड़ से भगे तब, गाँव करे परिहास ।।
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रो ले ऐ अन्धेर तू, ख़त्म आज साम्राज्य ।
प्रेम नेम से बट रहा, घृणा द्वेष अघ त्याज्य । घृणा द्वेष अघ त्याज्य, अमावस यह अति पावन । स्वागत है श्री राम, आइये पाप नशावन । धूम आज सर्वत्र, यहाँ भी देवी हो ले । सुख सामृद्ध सौहार्द, दान दे पढ़कर रोले । |
दीवाली में जुआ
मीत समीप दिखाय रहे कुछ दूर खड़े समझावत हैं ।
बूझ सकूँ नहिं सैन सखे तब हाथ गहे लइ जावत हैं ।
जाग रहे कुल रात सबै, हठ चौसर में फंसवावत हैं ।
हार गया घरबार सभी, फिर भी शठ मीत कहावत हैं ।।
|
डोरे डाले आज फिर, किन्तु जुआरी जात ।
गृह लक्ष्मी करती जतन, पर खाती नित मात ।
पर खाती नित मात, पूजती लक्षि-गणेशा ।
पांच मिनट की बोल, निकलता दुष्ट हमेशा ।
खेले सारी रात, लौटता बुद्धू भोरे ।
जेब तंग, तन ढील, आँख में रक्तिम डोरे ।।
दीवाली का पर्व है, सबको बाँटों प्यार।
ReplyDeleteआतिशबाजी का नहीं, ये पावन त्यौहार।।
लक्ष्मी और गणेश के, साथ शारदा होय।
उनका दुनिया में कभी, बाल न बाँका होय।।
दीपोत्सव पर्व पर हार्दिक बधाई और शुभकामनायें
ReplyDeleteदीपावली की हार्दिक शुभकामनाये,
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपको दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएँ!
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए...
ReplyDeleteदीपावली पर शुभकामनाएं...
ReplyDeleteदीपावली शुभ हो!
ReplyDeleteरविकर से इतना प्रकाश होने लगा है कि मस्तक पर अनायास आयी छोटी तनाव की लकीर भी उजागर हो जाती है। उससे कुछ छिपा नहीं। उसकी शुभकामना की शुभ्रता से मस्तक की लकीर के भीतर समाहित तनाव के सभी कारण विलीन हो जाते हैं। ये सोचकर बहुत गर्व होता है कि हमारे रविकर में कवित्व के साथ विद्वता और विनम्रता दोनों हैं। और कवित्व में वे तमाम गुण और भाव समाहित हैं जो मनुष्य को मनुष्य कहलाने योग्य ठहराते हैं। प्रेम, भक्ति, आदर, श्रद्धा, वात्सल्य मतलब प्रीति परिवार के सभी सदस्य इनके ह्रदय में वास करते हैं। नमन इनकी सदाशयता को।
ReplyDeleteसब बच्चों की किस्मत दमके ! ऐसी यह दीवाली चमके !!
ReplyDelete
ReplyDelete12 NOVEMBER, 2012
पॉलिटिकल यह शोहदे, पंहुचाते हैं ठेस -
देह देहरी देहरे, दो, दो दिया जलाय-रविकर
शुभकामनायें
दीपावली 2012
है पच्चास करोड़ का, मानहानि का केस ।
पॉलिटिकल यह शोहदे, पंहुचाते हैं ठेस ।
पंहुचाते हैं ठेस, बने दिग्गी आमोदी ।
जरा नहीं केजरी, बिचारी एक्ट्रेस रो दी।
एक्टिंग की उस्ताद, नहीं क्या यहाँ होड़ की ?
गर्ल फ्रेंड की बात, वही पच्चास करोड़ की ।।
बहुत बढ़िया सर इन राजनीति के विदूषकों का मजाक ही उड़ाया जा सकता है .हैं तो यह तेल लगे बैंगन .
दीपक क्या कहते हैं .........
दीवाली की रात प्रिये ! तुम इतने दीप जलाना
जितने कि मेरे भारत में , दीन - दु:खी रहते हैं |
देर रात को शोर पटाखों का , जब कम हो जाए
कान लगाकर सुनना प्यारी, दीपक क्या कहते हैं |
शायद कोई यह कह दे कि बिजली वाले युग में
माटी का तन लेकर अब हम जिंदा क्यों रहते हैं |
कोई भी लेकर कपास नहीं , बँटते दिखता बाती
आधा - थोड़ा तेल मिला है ,दु;ख में हम दहते हैं |
भाग हमारे लिखी अमावस,उनकी खातिर पूनम
इधर बन रहे महल दुमहले, उधर गाँव ढहते हैं |
दीवाली की रात प्रिये ! तुम इतने दीप जलाना
जितने कि मेरे भारत में , दीन - दु:खी रहते हैं |
निगम परिवार की और से सभी को
दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें
अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग (छत्तीसगढ़)
विजय नगर , जबलपुर (मध्य प्रदेश)
ये काव्य दीप आभा मंडल इसका असीम ,
अरुण निगम भी है निस्सीम .
रविकर थोथे चने सम, पौध उगी बिन जोत-
क्या निवेदन करूँ ??आदरणीय प्रतुल जी !!
तुलसी हैं शशि सूर रवि, केशव खुद खद्योत ।
रविकर थोथे चने सम, झाड़ बढ़े बिन जोत ।
झाड़ बढ़े बिन जोत, घना लगता है बजने ।
अजब झाड़-झंखाड़, भाव बिन लगे उपजने ।
उर्वर पद-रज पाय, खाय मन-पादप हुलसी ।
रविकर तो एकांश, शंखपति कविवर तुलसी ।।
शंख=100000000000
शंख के स्वर और
थोथे चने के स्वर में जमीं-आस्मां का अंतर है-
उर्वर पद-रज=चरणों की धूल रूपी उर्वरक
बिन जोत=बिना जुताई किये / बिना ज्योति के
रचना के शिखर होने की पहली शर्त है काव्य विनम्रता .रविकर इसमें बे -जोड़ है .ब्लॉग जगत के गिरधर
रविकर जी आश्चर्य है जीवन की तमाम व्यस्तताओं में आप इतना रचना-कर्म कैसे कर लेते हैं, आपकी प्रतिभा, विद्वता और लेखन कौशल को सादर नमन।
ReplyDeleteदीपोत्सव की हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं स्वीकारें।
ReplyDeleteउमा शंकर जी ,जो दूसरे की ख़ुशी में ,दूसरे की श्रेष्ठता से प्रभावित हो नांच नहीं सकता वह सचमुच बड़ा अभागा है .ये दोनों और आप
भी
ब्लॉग जगत के नगीने हैं .रविकर जी को अक्सर हमने भी रविकर दिनकर कहा है ,गिरधर की कुण्डलियाँ जब तब ताज़ा हुईं हैं रविकर
जी
को पढ़के एक माधुरी अरुण निगम जी के दोहों में कुंडलियों में एक खनक गजब की गेयता व्याप्त है जो विमुग्ध करती है पाठक को
,तनाव भी कम करती है .दोहे तो अपनी छोटी सी काया में पूरा अर्थ विस्तार लिए होतें हैं जीवन का सार संगीत की खनक लिए होते हैं
.सहमत आपसे जो भी लिखा है आपने .डर यही है विनम्रता में दोहरे होते रविकर जी इस अप्रत्याशित प्रशंसा को पचा भी पायेंगे .एक