Friday, 30 November 2012

बदलो गन्दी प्रथा, जरुरी है परिवर्तन -



मुझे पागल ही बने रहने दो ( लघु कथा )

उपासना सियाग 

पागलपन ही था तभी, रही युगों से जाग ।
भूली अपने आप को, भाया भला सुहाग ।
भाया भला सुहाग, हमेशा चिंता कुल की ।
पड़ी अगर बीमार, समझ के हलकी फुलकी । 
दफ्तर चलते बने,  जाय विद्यालय बचपन ।
अब पचपन की उम्र,  चढ़ा पूरा पागलपन ।। 

डायरेक्ट कैश ट्रांसफर (कंडीशन एप्लाय)


 अगर हाथ के साथ है, है पैसा तब साथ ।
यही कार्ड आधार है, सीधा सच्चा पाथ ।

मेरी रत्ना को ऐसे तेवर दे

अरुण कुमार निगम (mitanigoth2.blogspot.com) 

सुन्दर-शारद-वन्दना, मन का सुन्दर भाव ।
ढाई आखर से हुआ, रविकर हृदय अघाव ।
रविकर हृदय अघाव, पाव रत्ना की झिड़की ।
मिले सूर को नयन, भक्ति की खोले खिड़की ।
कथ्य-शिल्प समभाव, गेयता निर्मल अंतर ।
 मीरा तुलसी सूर, कबीरा गूँथे सुन्दर ।।
 
Bitter talk , But real talk
परिवर्तन है कुदरती,  बदला देश समाज ।
बदल सकी नहिं कु-प्रथा,  अब तो जाओ बाज ।
 अब तो जाओ बाज, नहीं शोषण कर सकते ।
लिए आस्था नाम, पाप सदियों से ढकते ।
दो इनको अधिकार, जियें ये अपना जीवन ।
बदलो गन्दी प्रथा, जरुरी है परिवर्तन ।

अहं पुरुष का तोड़, आज की सीधी धारा -


सोना सोना बबकना, पेपर टिसू मरोड़ । 
 बना नाम आदर्श अब, अहं पुरुष का तोड़ ।

अहं पुरुष का तोड़, आज की सीधी धारा ।
भजते भक्त करोड़, भिगोकर कैसा मारा ।

हैडन कर हर भजन, भरो परसाद भगोना ।
पेपर टिसू अनेक, मांगते मंहगा सोना ।।
 समयचक्र 

रोजी लगी लताड़ने, कर सौन्दर्य बयान ।
कंटक को खल ही गई, बोला बात सयान ।
बोला बात सयान, तुम्हारी रक्षा करता ।
माना सुन्दर रूप, सकल जग तुम पर मरता ।
किन्तु भरे हैं दुष्ट, विकल लोलुप मनमौजी ।
हमीं भगाएं दूर, तभी बच पाती रोजी ।।

आधा तीतर आधा बटेर

Asha Saxena 

पहले था तीतर-मना, दौड़ा-भागा ढेर |
बड़ी बटोरी डिग्रियां, बनता किन्तु बटेर |
बनता किन्तु बटेर, लड़ाकू मुर्गा बेहतर |
दंगल में उस्ताद, भिडाए सम्मुख रविकर |
चतुर चलाये चोंच, मार नहले पे दहले |
करे नहीं संकोच, गालियाँ बकता पहले ||

5 comments:

  1. बेहतरीन सर मनभावक रचनायें

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  2. बहुत ही अच्‍छे लिंक्‍स एवं प्रस्‍तुति

    आभार सहित

    सादर

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  3. बहुत बढ़िया सार्थक लिनक्स
    साभार

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