"आभा मण्डल "
Sushil at "उल्लूक टाईम्स "
21 minutes ago
भीतर से तन खोखला, मन को खला विशेष ।
आभा-मंडल ले बना, धर बहुरुपिया वेश ।
धर बहुरुपिया वेश, गगरिया छलकत जाए ।
बण्डल-बाज भदेस, शान-शौकत दिखलाए ।
रविकर सज्जन वृन्द, कर्मरत हो मुस्काते ।
उपलब्धियां अनेक, किन्तु न छलकत जाते ।।
bahut badhiyaa...
ReplyDeleteजैसे ही हम दाल पकाते हैं
ReplyDeleteरविकर आ कर घीं का तड़का लगाते हैं ।
आभारी हूँ ।
धर बहुरुपिया वेश, गगरिया छलकत जाए ।
ReplyDeleteबण्डल-बाज भदेस, शान-शौकत दिखलाए । सटीक व्यंग्य यथार्थपरक .
.कृपया यहाँ भी पधारें -
बुधवार, 9 मई 2012
http://veerubhai1947.blogspot.in/
धर बहुरुपिया वेश, गगरिया छलकत जाए ।
ReplyDeleteबण्डल-बाज भदेस, शान-शौकत दिखलाए । सटीक व्यंग्य यथार्थपरक .
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बुधवार, 9 मई 2012
शरीर की कैद में छटपटाता मनो -भौतिक शरीर
जीवन में बड़ा मकसद रखना दिमाग में होने वाले कुछ ऐसे नुकसान दायक बदलावों को मुल्तवी रख सकता है जिनका अल्जाइमर्स से सम्बन्ध है .
http://kabirakhadabazarmein.blogspot.in/
बुधवार, 9 मई 2012
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बुधवार, 9 मई 2012
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सुशील जी का कहना सही है, दाल पकते ही आप द्वारा घी का तडका...सब कुछ जायकेदार कर देता है।
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