दादी सुमिरन में रमी, जय राधे घनश्याम |
जय राधे घनश्याम, चले मथुरा से काशी |
दादी गई भुलाय, बाल-मन परम उदासी |
पढ़ी दुर्दशा आज, भजन से मिलती रोटी |
लाश रहे दफ़नाय, काट के बोटी-बोटी ||
मरणोपरांत
Mridula Harshvardhan at Naazमात्र कल्पना से सिहर, जाती भावुक देह |
अब मसान की आग भी, जला सके ना नेह |
जला सके ना नेह, गेह अब खाली खाली |
तनिक नहीं संदेह, मोक्ष रविकर ने पाली |
लेकिन एक सवाल, तुम्हारा मुझको ठगना |
कैसे जाते छोड़, किया क्या कभी कल्पना ??
बदले ज़माने देखो - कविता
जुबाँ काटे गला काटे, कलेजा काट कर फेंके |
जले श्मशान में काँटा, वहां भी हाथ वो सेंके ||
रही थी दोस्ती उनसे, गुजारे थे हंसीं-लम्हे
उन्हें हरदम बुरा लगता, वही जो रास्ता छेंके ||
कभी निर्द्वंद घूमें वे, खुला था आसमां सर पर
धरा पर पैर न पड़ते, मिले आखिर छुरा लेके ||
मुहब्बत को सितम समझे, जरा गंतव्य जो पूंछा-
गंवारा यह नहीं उनको, गए मुक्ती मुझे देके ।।
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteअच्छी कुण्डलियाँ!
दोनों गहन, मर्मस्पर्शी रचनाओं पर आपकी सटीक टिप्पणी.....
ReplyDeleteशुक्रिया रविकर जी.
मार्मिक प्रसंग कारुणिक टिपण्णी .
ReplyDeletesuper...
ReplyDeletevery appealing counter comments.
ReplyDeleteरविकर जी की टिप्पणी से निखर जाती है
ReplyDeleteश्रंगार कर के जैसे ब्यूटी पार्लर से आती है।
बहुत बढ़िया, रविकर जी कि टिप्पड़ी रविकर जी कविताओ के समानुपात होती है ...
ReplyDeleteरचना पढ़कर तो मजा आता ही है परन्तु रविकर जी की टिपण्णी से उसमे चार चाँद लग जाते हैं तीनो टिपण्णी (कुंडलियाँ ,ग़ज़ल )बेहतरीन हैं
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.. मेरी रचना को मान दिया आभार रविकर जी..
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