ऊंचा वही है जो गहराई लिए है
veerubhai at ram ram bhai
(1)
ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |
ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
करनी है यह तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |
किन्तु सके सौ लील, समन्दर इन्हें समूचा | |
जो है गहरा शांत, सभी पर्वत से ऊँचा ||
(2)
पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |
सागर समझे पीर, किन्तु गंभीर नियामक |
पाले अरब शरीर, संभाले सब बिधि लायक |
बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।
(3)
तथाकथित उस ऊँच को, देता थोडा क्लेश |
शान्त समन्दर भेजता, मानसून सन्देश |
मानसून सन्देश, कष्ट में गंगा पावन |
जीव-जंतु हलकान, काट तू इनके बंधन |
ब्रह्मपुत्र सर सिन्धु, ऊबता मन क्यूँ सबका ?
अपना त्याग घमंड, दुहाई रविकर रब का ||
(4)
तप्त अन्तर है भयंकर |
बहुत ही विक्षोभ अन्दर |
जीव अरबों है विचरते-
शाँत पर दिखता समंदर ||
पारसी छत पर खिलाते |
सुह्र्दजन की लाश रखकर |
पर समंदर जीव मृत से -
ऊर्जा दे तरल कर कर ||
बहुत ही विक्षोभ अन्दर |
जीव अरबों है विचरते-
शाँत पर दिखता समंदर ||
पारसी छत पर खिलाते |
सुह्र्दजन की लाश रखकर |
पर समंदर जीव मृत से -
ऊर्जा दे तरल कर कर ||
(5)
बढ़ी समस्या खाद्य की, लूट-पाट गंभीर |
मत्स्य एल्गी के लिए, चलो समंदर तीर |
चलो समंदर तीर, भरे भण्डार अनोखा |
बुझा जठर की आग, कभी देगा ना धोखा |
सागर अक्षय पात्र, करेगा विश्व तपस्या |
सचमुच हृदय विशाल, मिटाए बढ़ी समस्या ||
(6)
लम्बी-चौड़ी हाँकते, बौने बौने लोग |
शोषण करते धरा का, औने-पौने भोग |
औने-पौने भोग, रोग है इनको लागा |
रखता एटम बम्ब, दुष्टता करे अभागा |
रविकर कर चुपचाप, जलधि के इन्हें हवाले |
ये आफत परकाल, रखे गहराई वाले ||
(7)
धरती भरती जा रही, बड़ी विकट उच्छ्वास |
बरती मरती जा रही, ले ना पावे साँस |
ले ना पावे साँस, तुला नित घाट तौलती |
फुकुसिमी जापान, त्रासदी रही खौलती |
221221 22122
यूँ तो मुहब्बत किया जान देकर-
पर ख़ुदकुशी ने रुलाया बहुत है |
गम गलत गर कर न पाए हसीना-
गम को खिला जल पिलाया बहुत है ||
तड़पा किया जब हुआ लाश रविकर-
तन ठोकरों से हिलाया बहुत है ||
गाया गजल गुनगुनाया गुनाकर -
फिर मर्सिया तूने गाया बहुत है ||
होंठो पे तेरे सुधा की जो शबनम-
जिद से पिला के जिलाया बहुत है ||
यूँ तो मुहब्बत किया जान देकर-
पर ख़ुदकुशी ने रुलाया बहुत है |
गम गलत गर कर न पाए हसीना-
गम को खिला जल पिलाया बहुत है ||
तड़पा किया जब हुआ लाश रविकर-
तन ठोकरों से हिलाया बहुत है ||
गाया गजल गुनगुनाया गुनाकर -
फिर मर्सिया तूने गाया बहुत है ||
होंठो पे तेरे सुधा की जो शबनम-
जिद से पिला के जिलाया बहुत है ||
बहुत सुन्दर...
ReplyDeleteतप्त अन्तर है भयंकर |
ReplyDeleteबहुत ही विक्षोभ अन्दर |
जीव अरबों है विचरते-
शाँत पर दिखता समंदर |
,..अच्छी प्रस्तुती,,,,,,,
MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....
मान्यवर ,रविकर जी ,गद्य तो मात्र पृथ्वी की ही परिक्रमा है लेकिन पद्य धरती और आकाश दोनों की परिक्रमा है .आपने एक महत काम किया है यह काव्य -रूपांतरण करके .वागीश मेहता जी को तमाम कुंडलियाँ सुनाईं.आप तक उनकी प्रशंशा पहुंचा रहा हूँ .स्वीकार करें और मेरा नेहा और सलाम .
ReplyDeleteवाह ...बेहतरीन ।
ReplyDeleteकितना लिख डालते हो
ReplyDeleteकहाँ से निकालते हो।