'चित्र से काव्य तक' प्रतियोगिता अंक -१९
रविकर की रचनाएं
मृगनैनी नहिं सोहती, मृग-तृष्णा से क्षुब्ध ।
विषम-परिस्थित सम करें, भागें नहीं प्रबुद्ध ।
भागें नहीं प्रबुद्ध, शुद्ध अन्तर-मन कर ले ।
प्रगति होय अवरुद्ध, क्रुद्धता बुद्धी हर ले ।
रहिये नित चैतन्य, निगाहें रखिये पैनी ।
भ्रमित कहीं न होय, हमारी प्रिय मृग-नैनी ।।
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दोहे
हवा-हवाई रेत-रज, भामा भूमि विपन्न ।
रेतोधा वो हो नहीं, इत उपजै नहिं अन्न ।।
रेत=बालू / वीर्य
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उड़ती गरम हवाइयाँ, चेहरे बने जमीन ।
शीश घुटाले धनहरा, कुल सुकून ले छीन ।।
(शीश घुटाले = सिर मुड़वाले / शीर्ष घुटाले धनहरा = धन का हरण करने वाला )
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भ्रष्टाचारी काइयाँ, अरावली चट्टान ।
रेत क्षरण नियमित करे, हारे हिन्दुस्तान ।।
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कंचन-मृग मारीचिका, विस्मृत जीवन लक्ष्य ।
जोड़-तोड़ की कोशिशें, साधे भक्ष्याभक्ष्य ।
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रविकर के सवैये
(मत्तगयन्द)
सवैया
लूट रहे ज़र-ज़ोरु-ज़मीन भिड़ें खलु दुष्ट करें मुँह काला ।
भीषण रेगिसतान-मसान समान लगे मम देश विशाला ।
मारिष मानुष मोद मिले, मगदा मकु मोंहिं मिले मणि-माला ।
दुष्टन के दशद्वारन को दशबाहु दहाय मिटा दनु-हाला ।।
मारिष = सूत्रधार मगदा = मार्ग दिखने वाला मकु=कदाचित / चाहे
मणि-माला = रुद्राक्ष दशद्वारन = दश द्वार / देह द्वार दशबाहु = शिवशंकर
निर्जन निर्जल निर्मम निष्ठुर, नीरस नीरव निर्मद नैसा ।
निर्झर नीरज नीरद नीरत, नीमन नैमय नोहर कैसा ?
है मनुजाद मनोरथ दुष्ट, मरे मनई चिड़िया पशु भैंसा ।
तत्व भरे बहुमूल्य बड़े, "सिलिका " कण में पर बेहद पैसा ।।
शब्द-अर्थ
निर्मद=हर्ष शून्य नैसा =खराब नीरत=नहीं है
निर्झर-नीरज-नीरद = झरना-कमल-बादल
नीमन=अच्छा नैमय=व्यापारी
नोहर=दुर्लभ मनई=मानव
मनुजाद=मनुष्य को खाने वाला राक्षस
सिलिका = रेत, बालू , इलेक्ट्रानिक्स उपकरणों का आधारभूत तत्व
(सुंदरी)
फुफकार रहे जब व्याल सखे, नुकसान नहीं कुछ भी कर पाए ।
मरुभूमि बनाय बिगाड़ रहा, नित रेतन टीलन से भरमाये ।
*निरघात लगे सह जाय शरीर, फँसे मृग मारिच जीवन खाए ।
पर नागफनी *टुकड़ा जब खाय, बचा जन जीवन जी हरसाए ।।
*मारक हवा के थपेड़े
(नागफनी का गूदा खाकर मरुस्थल में अपने प्राण बचाए जा सकते हैं -
दुर्मिल
कुण्डलि मार रहा फुफकार सदैव छुपे जब तप्त धरा हो ।
दोहन रोलन की भरमार सुधार करे कुछ जो अखरा हो ।
रेगिसतान दिखा नभ मेघ हुई बरसात हरा सगरा हो ।
सौरभ पान मिले वरदान रचे 'रवि' छंद विशेष 'गिरा' हो ।।
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हत्यारों की जात ये, गजब चाल चल जात ।
रेती ले कर रेत दें, हर कन्या नवजात ।
हर कन्या नवजात, ताप से तृष्णा बढती ।
तड़प उठे नर-नारि, धूप में देह अकड़ती ।
यू पी राजस्थान, केंद्र हरियाणा चारो ।
बना रहे क्यूँ इन्हें, मरुस्थल रे हत्यारों ।।
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कुंडलियाँ
चश्में चौदह चक्षु चढ़, चटचेतक चमकार ।
रेगिस्तानी रेणुका, मरीचिका व्यवहार ।
मरीचिका व्यवहार, मरुत चढ़ चौदह तल्ले ।
मृग छल-छल जल देख, पड़े पर छल ही पल्ले ।
मरुद्वेग खा जाय, स्वत: हों अन्तिम रस्में ।
फँस जाए इन्सान, ढूँढ़ नहिं पाए चश्में ।।
मरुकांतर में जिन्दगी, लगती बड़ी दुरूह ।
लेकिन जैविक विविधता, पलें अनगिनत जूह ।
पलें अनगिनत जूह, रूह रविकर की काँपे।
पादप-जंतु अनेक, परिस्थिति बढ़िया भाँपे ।
अनुकूलन में दक्ष, मिटा लेते कुल आँतर ।
उच्च-ताप दिन सहे, रात शीतल मरुकांतर ।।
रेतीले टीले टले, रहे बदलते ठौर।
मरुद्वेग भक्षण करे, यही दुष्ट सिरमौर ।
यही दुष्ट सिरमौर, तिगनिया नाच नचाए ।
बना जीव को कौर, अंश हर एक पचाए ।
ये ही मृग मारीच, जिन्दगी बच के जीले ।
देंगे गर्दन रेत, दुष्ट बैठे रेती ले ।
चश्में=ऐनक / झरना
चटचेतक = इंद्रजाल
रेणुका=रेत कण / बालू
मरुद्वेग=वायु का वेग / एक दैत्य का नाम
मरुकांतर=रेतीला भू-भाग
जूह =एक जाति के अनेक जीवों का समूह
आँतर = अंतर
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रविकर सर एक से बढ़कर एक प्रभावशाली रचनायें हैं, पढ़ कर आनंद आ गया, बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteबेहतरीन !
ReplyDeleteएक से एक उत्तम रचनाएँ !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
दुर्गाष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!
लाजवाब!
ReplyDeleteवाह ... बेहतरीन
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