शाम है धुँआ धुँआप्रवीण पाण्डेय
बिल्ली छींका चाटती, जब तब जाए टूट ।
लुकाछिपी चलती नहीं, हर दिन लेती लूट ।
हर दिन लेती लूट, रूठ भी जाये अक्सर ।
पर सम्बन्ध अटूट, बिलौटे रहना बचकर ।
हो श्रीमान प्रवीण, चाल चलती है दिल्ली ।
धुवाँ धुवां सा सीन, बजाती घंटी बिल्ली ।।
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जीवन का सच ...
Suman
रिश्ते नाते सत्य यह, मिथ्या जगत विचार ।
वो ही शाश्वत सत्य है, वो ही विश्वाधार ।
वो ही विश्वाधार, उसी के हाथों डोरी ।
कठपुतली सा नाच, गर्व कर देह निगोरी ।
हो जाती है मगन, भूल कर अटल मृत्यु को ।
क्षिति जल पावक गगन, वायु के असल कृत्य को ।।
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कल रोटी पाया नहीं, केवल मिड-डे मील । बापू-दारुबाज को, दारु लेती लील । दारु लेती लील, नोचते माँ को बच्चे । समझदार यह एक, शेष तो बेहद कच्चे । छोड़ मदरसा भाग, प्लेट धोवे इक होटल । जान बचा ले आज, सँवारे तब ना वह कल । |
मकड़ी मानुष में फरक, घातक खुद का जाल ।
गड्ढा खोदे गैर हित, बनता खुद का काल । बनता खुद का काल, नजर फिर भी न नीची । करता नए बवाल, पाप का पादप सींची । बैठा काटे डाल, जलावन वाली लकड़ी । पाया नहीं सँभाल, मौत की फाँसे मकड़ी ।। |
नाना का नाम धो डाला खुर्शीद दंपत्ति ने ...आधा सचदुर्मिल सवैया का अभ्यास -
सलमान मियाँ अब जान दिया, जब लाख करोड़ मिला विकलांगी ।
अब जाकिर सा शुभ नाम बिका, खुरशीद दगा दबता सरवांगी ।
वडरा कचरा कल झेल गया, अखरा अपना लफड़ा एकांगी ।
असहाय शरीर रहा अकुलाय चुरा सब खाय गया हतभागी ।।
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बनता जाय लबार, गाँठ जिभ्या में बाँधों-
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भारत बनाना रिपब्लिक नहीं, कुप्रंबंधन का शिकार है. (India-banana-bad-mgmt)
अवधेश पाण्डेय
नहीं बनाना वाडरा, नाना मम्मा दोष । मूरख जनता बन रही, लुटा लुटा के कोष । लुटा लुटा के कोष , होश सत्ता ने खोया । वैमनस्य के बीज, सभी गाँवों में बोया । लोकतंत्र की फसल, बिना पानी उगवाना । केला केलि करोड़ , अकेला देश बनाना ।। |
इसी शीर्षक की एक किताब आ जाये तो क्या बात है !
ReplyDeleteवाह ... बहुत बढिया।
ReplyDeleteरविकर जी की कविताएँ हमें
ReplyDeleteब्लॉग पर उर्जा बहुत है देती
उर्जा है बहुत देती कविताये
नहीं है ये तुकबंदी, ओसकण
है ये आसमान से बरसती !
बहुत बहुत आभार :)
jaruar ye tukbandi hai ....
कुण्डिया छंद तो आपको सिद्ध हो गये हैं!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteरिश्ते नाते सत्य यह, मिथ्या जगत विचार ।
वो ही शाश्वत सत्य है, वो ही विश्वाधार ।
वो ही विश्वाधार, उसी के हाथों डोरी ।
कठपुतली सा नाच, गर्व कर देह निगोरी ।
हो जाती है मगन, भूल कर अटल मृत्यु को ।
क्षिति जल पावक गगन, वायु के असल कृत्य को ।।
जीवन का यथार्थ दर्शन और पञ्च भूत की शाश्वतता का दिग्दर्शन लिए हैं ये पंक्तियाँ .
बाल श्रमिक
ReplyDeleteअरुण कुमार निगम (हिंदी कवितायेँ)
कल रोटी पाया नहीं, केवल मिड-डे मील ।
बापू-दारुबाज को, दारु लेती लील ।
दारु लेती लील, नोचते माँ को बच्चे ।
समझदार यह एक, शेष तो बेहद कच्चे ।
छोड़ मदरसा भाग, प्लेट धोवे इक होटल ।
जान बचा ले आज, सँवारे तब ना वह कल ।
बाल श्रम का कारुणिक मानवीकरण .
बाल श्रम का कारुणिक मानवीकरण .
ReplyDeleteबालश्रमिक को देखकर ,मन को लागे ठेस
बचपन बँधुआ हो गया , देहरी भइ बिदेस
देहरी भइ बिदेस , भूलता खेल –खिलौने
छोटा - सा मजदूर , दाम भी औने – पौने
भेजे शाला कौन ? दुलारे कर्म–पथिक को
मन को लागे ठेस, देखकर बालश्रमिक को ||
कहीं चूड़ियाँ लाख की, कहीं बगीचे जाय |
कहीं कारपेट बन रहे, बीड़ी कहीं बनाय |
बीड़ी कहीं बनाय, आय में करे इजाफा |
सत्ता का सब स्वांग, देखकर भांप लिफाफा |
होमवर्क को भूल, घरों में तले पूड़ियाँ |
चौका बर्तन करे, टूटती नहीं चूड़ियाँ ||
इन दोनों महारथियों ने (रविकर जी ,अरुण निगम जी ने )बाल श्रम के पूरे विस्तृत क्षेत्र की पूर्ण पड़ताल की है इस विमर्श में .
छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए ,
यही बाल श्रमिक कहलाए .
घरु रामू मल्टीटासकर है ,
कहीं पर है रामू ,कहीं बहादुर .
भाई साहब बाल श्रम पर एक सार्थक विमर्श चलाया है आप महानुभावों ने
बहुत सुंदर लिंक्स
ReplyDeleteमुझे स्थान देने के लिए आभार
इन लिक्खाड़ में कुछ बेहतरीन लिंक्स मिले, कुछ सामयिक संदर्भों पर बेहतरीन रचनाएं भी।
ReplyDeleteलाजवाब !
ReplyDeleteकौन नहीं चाहता पारस आये
आ कर बस छू जाये
और पत्थर किसी का
कुछ ऎसे ही सोना हो जाये !
बढ़िया लिंक्स के साथ सुन्दर प्रस्तुति ...
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