Thursday 17 May 2012

किन्तु सके सौ लील, समन्दर इन्हें समूचा-

ऊंचा वही है जो गहराई लिए है

veerubhai at ram ram bhai

(1)
ऊँचा-ऊँचा बोल के, ऊँचा माने छूँछ |
भौंके गुर्राए बहुत, ऊँची करके पूँछ |

ऊँची करके पूँछ, मूँछ पर हाथ फिराए |
करनी है यह तुच्छ, ऊँच पर्वत कहलाये |

किन्तु सके सौ लील, समन्दर इन्हें समूचा | |
जो है गहरा शांत, सभी पर्वत से ऊँचा ||

(2)
पर्वत की गर्वोक्ति पर, धरा धरे ना धीर |
चला सुनामी विकटतम, सागर समझे पीर |

सागर समझे पीर, किन्तु गंभीर नियामक |
पाले अरब शरीर, संभाले सब बिधि लायक | 

बड़वानल ले थाम, सुनामी की यह हरकत |
करे तुच्छ एहसास, दहल जाता वो पर्वत |।

(3)
तथाकथित उस ऊँच को, देता थोडा क्लेश |
शान्त समन्दर भेजता, मानसून सन्देश | 


मानसून सन्देश, कष्ट में गंगा पावन |

जीव-जंतु हलकान, काट तू इनके बंधन |

ब्रह्मपुत्र सर सिन्धु, ऊबता मन क्यूँ सबका  ?
अपना त्याग घमंड, दुहाई रविकर रब का ||  


(4)

तप्त अन्तर है भयंकर |
बहुत ही विक्षोभ अन्दर |
जीव अरबों है विचरते-
शाँत पर दिखता समंदर ||

पारसी छत पर खिलाते |
सुह्र्दजन की लाश रखकर |
पर समंदर जीव मृत से -
ऊर्जा दे तरल कर कर || 

(5)

बढ़ी समस्या खाद्य की, लूट-पाट गंभीर |
मत्स्य एल्गी के लिए, चलो समंदर तीर |


चलो समंदर तीर, भरे भण्डार अनोखा |
बुझा जठर की आग, कभी देगा ना धोखा |


सागर अक्षय पात्र, करेगा विश्व तपस्या |
सचमुच हृदय विशाल, मिटाए बढ़ी समस्या || 


(6)

लम्बी-चौड़ी हाँकते, बौने बौने लोग |
शोषण करते धरा का, औने-पौने भोग |

औने-पौने भोग, रोग है इनको लागा |
रखता एटम बम्ब, दुष्टता करे अभागा |

रविकर कर चुपचाप, जलधि के इन्हें हवाले |
ये आफत परकाल, रखे गहराई  वाले ||


(7)
धरती भरती जा रही, बड़ी विकट उच्छ्वास |
बरती मरती जा रही, ले ना पावे साँस |

ले ना पावे साँस, तुला नित घाट तौलती |
फुकुसिमी जापान, त्रासदी रही खौलती |

चेतो लो संकल्प, व्यर्थ जो आपा खोते |
मिले कहाँ से आम, अगर बबुरी-बन बोते ||


फुहार....

बदनसीबी
221221  22122
यूँ तो मुहब्बत किया जान देकर-
पर ख़ुदकुशी ने रुलाया बहुत है |

गम गलत गर कर न पाए हसीना-
गम को खिला जल पिलाया बहुत है ||

तड़पा किया जब हुआ लाश रविकर-
तन ठोकरों से हिलाया बहुत है ||

गाया गजल गुनगुनाया गुनाकर -
फिर मर्सिया तूने गाया बहुत है ||

होंठो पे तेरे सुधा की जो शबनम-
जिद से पिला के जिलाया बहुत है ||

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर...

    ReplyDelete
  2. तप्त अन्तर है भयंकर |
    बहुत ही विक्षोभ अन्दर |
    जीव अरबों है विचरते-
    शाँत पर दिखता समंदर |

    ,..अच्छी प्रस्तुती,,,,,,,

    MY RECENT POST,,,,फुहार....: बदनसीबी,.....

    ReplyDelete
  3. मान्यवर ,रविकर जी ,गद्य तो मात्र पृथ्वी की ही परिक्रमा है लेकिन पद्य धरती और आकाश दोनों की परिक्रमा है .आपने एक महत काम किया है यह काव्य -रूपांतरण करके .वागीश मेहता जी को तमाम कुंडलियाँ सुनाईं.आप तक उनकी प्रशंशा पहुंचा रहा हूँ .स्वीकार करें और मेरा नेहा और सलाम .

    ReplyDelete
  4. वाह ...बेहतरीन ।

    ReplyDelete
  5. कितना लिख डालते हो
    कहाँ से निकालते हो।

    ReplyDelete