25 मार्च से 26 मार्च की दोपहर तक जयपुर राजस्थान में हूँ-
सूत्र : 08521396185
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ब्लॉगर मित्रों से मिलना चाहता हूँ-रविकर
(दिगम्बर नासवा)
स्वप्न मेरे...........
उधर सिधारी स्वर्ग तू, इधर बचपना टाँय | टाँय टाँय फ़िस बचपना, हरता कौन बलाय | हरता कौन बलाय, भूल जाता हूँ रोना | ना होता नाराज, नहीं बैठूं उस कोना | एक साथ दो मौत, बचपना सह महतारी | करना था संकेत, जरा जब उधर सिधारी || |
रागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार |
इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार | देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने | करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने | विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी | सकल देह जलजाय, अजब प्रेमी वैरागी ||
तेरी मुरली चैन से, रोते हैं इत नैन ।
विरह अग्नि रह रह हरे, *हहर हिया हत चैन ।
*हहर हिया हत चैन, निकसते बैन अटपटे ।
बीते ना यह रैन, जरा सी आहट खटके ।
दे मुरली तू भेज, सेज पर सोये मेरी ।
सकूँ तड़पते देख, याद में रविकर तेरी ॥
*थर्राहट
|
लीजिये पढ़िये मेरी पहली ब्लॉग बुलेटिन
तुषार राज रस्तोगी
ट्रिन ट्रिन बुलेटिन कर रहा, जागे ब्लॉगर मित्र |
अब तुषार कणिका करे, तन मन तृप्त विचित्र ||
Ankur Jain
नहीं प्रतारक प्रेम सा, नहीं प्रताड़क अन्य |
पर्जन्या दे देह पर, नयनों में पर्जन्य | नयनों में पर्जन्य, काटता रहा पतंगें | बुरा सदा अंजाम, करे मानव-मन नंगे | कुछ घड़ियों की मौज, प्रेम दारुण संहारक | बिना शस्त्र मर जाय, मौत पर हँसे प्रतारक || प्रतारक=ठग प्रताड़क=कष्ट देने वाला पर्जन्या=दारुहल्दी पर्जन्य=बादल |
सर्ग-2
भाग-3
भाग-3
कन्या का नामकरण
कौशल्या दशरथ कहें, रुको और महराज | अंगराज रानी सहित, ज्यों चलते रथ साज || राज काज का हो रहा, मित्र बड़ा नुक्सान | चलने की आज्ञा मिले, राजन हमें विहान || सुबह सुबह दो पालकी, दशरथ की तैयार | अंगराज रथ पर हुए, मय परिवार सवार || दशरथ विनती कर कहें, देते एक सुझाव | सरयू में तैयार है, बड़ी राजसी नाव || |
" हलवा है क्या ..........."
Amit Srivastava
हलवाई रविकर बना, व्यंजन कई प्रकार | चखे चखाए मित्र को, आजा तो इक बार | आजा तो इक बार, बड़ी वासंतिक रुत है | खा मीठा नमकीन, अगर हड़बड़ी बहुत है | सूजी घी में भून, सुगर मेवा दूँ डलवा | संग चाय नमकीन, पौष्टिक खा लो हलवा || |
काटे कागद कोर ने, कवि के कितने अंग । कविता कर कर कवि भरे, कोरे कागज़ रंग । कोरे कागज़ रंग, रोज ही लगे खरोंचे । दिल दिमाग बदहाल, याद बामांगी नोचे । रविकर दायाँ हाथ, एक दिन गम जब बांटे । जीवन रेखा छोट, कोर कागज़ की काटे ।। |
बड़ा कार्य जब सिद्ध हो, छोटे पर क्या क्लेश |
छोटे पर क्या क्लेश, सुनो उपदेश सरल सा |
करे वंचिका ऐश, देहा को हुलसा हरसा |
प्रेम युद्ध जा जीत, जीत कर आप वैयक्तिक |
खुलने दे कुल पोल, अभी तो न्याय-कैमुतिक ||
अब नहीं लिखे जाते हैं गीत बुद्धि विकल काया सचल, आस ढूँढ़ता पास | मृत्यु क्षुधा-मैथुन सरिस, गुमते होश हवास | गुमते होश हवास, नाश कर जाय विकलता | किन्तु नहीं एहसास, हाथ मन मानव मलता | महंगा है बाजार, मिले हर्जाना मरकर | धन्य धन्य सरकार, मरे मेले में रविकर || |
बहुत सुन्दर कड़ियाँ हुज़ूर | आप जब दिल्ली आयें तो ज़रूर मिलना चाहूँगा आपसे | बहुत बहुत आभार |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अच्छे लिंक दिए है आपने
ReplyDeleteआपका बहुत 2 आभार की आपने इन लिंकों में मेरा भी एक लिंक दिया है
मेरी नई रचना
प्रेमविरह
एक स्वतंत्र स्त्री बनने मैं इतनी देर क्यूँ
बहुत ही सार्थक लिंक्स संयोजन.भ्रमण सुखद हो.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लिंक दिए है........
ReplyDeleteबढ़िया लिनक्स
ReplyDeleteगुरूजी मेरे बुलेटिन को सम्मलित करने के लिए शुक्रिया :) | आभार
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुति!
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