अरुण कु मार निगम
कन्नी अक्सर काटते, राजनीति से मित्र |
गिन्नी जैसी किन्तु यह, चम्-चम् करे विचित्र | चम्-चम् करे विचित्र , बड़े दीवाने इसके | चाहे जाय चरित्र, मरे चाहे वे पिसके | करते रहते खेल, कमीशन काट चवन्नी | आ के पापड़ बेल, काट ना यूं ही कन्नी || |
राजनैतिक कुण्डलिया : रहे "मुखर-जी" सदा ही, नहीं रहे मन मौन
रविकर
रहे "मुखर-जी" सदा ही, नहीं रहे मन मौन ।
आतंकी फांसी चढ़े, होय दुष्टता *दौन ।
होय दुष्टता *दौन, फटाफट करे फैसले ।
तभी सकेंगे रोक, सदन पर होते हमले ।
कायरता की देन, दिखा सत्ता खुदगर्जी ।
बना "सॉफ्ट-स्टेट", सॉफ्ट ना रहे "मुखर्जी"।।
*दमन
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ZEAL -
कानाफूसी हो शुरू, खंडित होवे *कानि |
अपना दुखड़ा रोय जो, करता अपनी हानि |
करता अपनी हानि, बुद्धि ना रहे सलामत |
जिसको देती मान, बुलाता वो ही शामत |
पी के अपना दर्द, ख़ुशी का करो बहाना |
खड़े भेड़िया हिस्र, छोड़ हरकत बचकाना ||
*सीख
अपना दुखड़ा रोय जो, करता अपनी हानि |
करता अपनी हानि, बुद्धि ना रहे सलामत |
जिसको देती मान, बुलाता वो ही शामत |
पी के अपना दर्द, ख़ुशी का करो बहाना |
खड़े भेड़िया हिस्र, छोड़ हरकत बचकाना ||
*सीख
मद्धिम रविकर तेज से , हो संध्या बेचैन ।
शर्मा जाती लालिमा, बैन नैन पा सैन ।
बैन नैन पा सैन, पुकारे प्रियतम अपना ।
सर पर चढ़ती रैन, चूर कर देती सपना ।
खग कलरव गोधूलि, बढ़ा देता है पश्चिम ।
है कुदरत प्रतिकूल, मेटता संध्या मद्धिम ।। |
स्वप्न मेरे...........
उधर सिधारी स्वर्ग तू, इधर बचपना टाँय |
टाँय टाँय फ़िस बचपना, हरता कौन बलाय |
हरता कौन बलाय, भूल जाता हूँ रोना |
ना होता नाराज, नहीं बैठूं उस कोना |
एक साथ दो मौत, बचपना सह महतारी |
करना था संकेत, जरा जब उधर सिधारी ||
उधर सिधारी स्वर्ग तू, इधर बचपना टाँय |
टाँय टाँय फ़िस बचपना, हरता कौन बलाय |
हरता कौन बलाय, भूल जाता हूँ रोना |
ना होता नाराज, नहीं बैठूं उस कोना |
एक साथ दो मौत, बचपना सह महतारी |
करना था संकेत, जरा जब उधर सिधारी ||
shikha varshney
लन्दन में बेखौफ हो, घूम रहे उद्दंड ।
नहीं नियंत्रण पा रही, लन्दन पुलिस प्रचंड ।
लन्दन पुलिस प्रचंड, दंड का भय नाकाफी ।
नाबालिग का क़त्ल, माँगता जबकि माफ़ी ।
क़त्ल किये सैकड़ों, करे पब्लिक अब क्रंदन ।
शान्ति-व्यवस्था भंग, देखता प्यारा लन्दन ।।
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kanupriya
दुखी रियाया शहर की, फिर भी बड़ी शरीफ ।
सह लेती सिस्कारियां, खुद अपनी तकलीफ ।
खुद अपनी तकलीफ, बड़ा बदला सा मौसम ।
वेलेंटाइन बसंत, बरसते ओले हरदम ।
हमदम जो नाराज, आज कर गया पराया ।
बिगड़े सारे साज, भीगती दुखी रियाया ।।
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आउटसोर्सकमल कुमार सिंह (नारद )
नारद
जू जू काटे काट जू, भांजे की ललकार | चापर चॉपर चोट दे, बनता बुरा बिहार | बनता बुरा बिहार, बड़ा लालची मीडिया | विज्ञापन की दौड़, चढ़े क्यूँ वहां सीड़ियाँ | रे प्रेस के अध्यक्ष, माँग के खाए काजू | ले सत्ता का पक्ष, डराए कह के जू जू || |
कल्पनाओं का वृक्ष
रस्तोगी से ईर्ष्या, पर जोड़ी से नेह | वर्षों यूँ ही बरसता, रहे प्यार का मेह | रहे प्यार का मेह, देह दोनों की सेहत | बनी रहे हे ईश, बरक्कत फलती मेहनत | सुखी रहे सन्तान, युगल की जय जय होगी | नजर नहीं लग जाय, लगा टीका रस्तोगी || |
प्रेम विरहDINESH PAREEK
मेरा मन
रागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार | इत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार | देता बुद्धि नकार, स्वार्थी सोलह आने | करे झूठ स्वीकार, बनाए बड़े बहाने | विरह-अग्नि दहकाय, लगन प्रियतम से लागी | सकल देह जलजाय, अजब प्रेमी वैरागी || |
ओ गांधारी जागो !
रेखा श्रीवास्तव
धारी आँखों पे स्वयं, मोटी पट्टी मातु ।
सौ-सुत सौंपी शकुनि को, अंधापन अहिवातु ।
अंधापन अहिवातु, सुयोधन दुर्योधन हो ।
रहा सुशासन खींच, नारि का वस्त्र हरण हो ।
कुंती सा क्यूँ नहीं, उठाई जिम्मेदारी ।
सारा रविकर दोष, उठा अंधी गांधारी ।
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आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (20-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
बढ़िया ..
ReplyDeleteसार्थक लिन संयोजन,टिप्पडी में काव्य का अनूठा प्रस्तुति.
ReplyDeleteवाह ... बेहतरीन प्रस्तुति
ReplyDeleteवाह लाजवाब चर्चा ... सभी मस्त छंद ...
ReplyDeleteरागी है यह मन मिरा, तिरा बिना पतवार |
ReplyDeleteइत-उत भटके सिरफिरा, देता बुद्धि नकार |आभार ,,,रविकर जी,,,
Recent Post दिन हौले-हौले ढलता है,
आपकी छंदबद्ध टिप्पणियों का जबाब देना आसान नहीं :).
ReplyDeleteआपका जवाब नहीं दिनेश जी .... त्वरित ... आशू कवि हैं आप ....
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