food myths & facts
veerubhai
ram ram bhai
लहसुन खाने से नहीं, मच्छर भागें पार्थ |
माशूका खिसके मगर, रविकर यही यथार्थ ||
अम्ल अमीनो सोडियम, दिल को रखे दुरुस्त |
पोटेशियम तरबूज से, मिले यार इक मुश्त || चिकनाई शक्कर बढे, बिगड़े भला सलाद | |
स्मृति शिखर से – 18 : सावन
करण समस्तीपुरी
विवरण मनभावन लगा, सावन दगा अबूझ |
नाटक नौटंकी ख़तम, ख़तम पुरानी सूझ | ख़तम पुरानी सूझ, उलझ कर जिए जिंदगी | अपने घर सब कैद, ख़तम अब दुआ बंदगी | गुड़िया झूला ख़त्म, बची है राखी बहना | मेंहदी भी बस रस्म, अभी तक गर्मी सहना || |
टिपण्णी कैसे करनी चाहिए ?
आमिर दुबई
पूरे विषय को पढ़कर, विभिन्न ब्लॉग पर, 10-12 अच्छी टिप्पणी करने के बाद एक आभार भी वापस नहीं मिलता तब दुःख होता है ।।
अर्थ टिप्पणी का सखे, टीका व्याख्या होय ।
ना टीका ना व्याख्या, बढ़ते आगे टोय ।
बढ़ते आगे टोय, महज कर खाना पूरी ।
धरे अधूरी दृष्टि, छोड़ते विषय जरुरी ।
पर उनका क्या दोष, ब्लॉग पर लेना - देना ।
यही बना सिद्धांत, टिप्पणी चना-चबैना ।।
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सावन आये सुहावन (शनिवार - फुर्सत में...) … करण समस्तीपुरीमनोजतरसे या हरसे हृदय, मास गर्व में चूर |कंत हुवे हिय-हंत खुद, सावन चंट सुरूर | सावन चंट सुरूर, सुने न रविकर कहना | राखी में मगरूर, पिया की जालिम बहना | लेती इन्हें बुलाय, वहाँ पर खुशियाँ बरसे | मन मेरा अकुलाय, मिलन को बेहद तरसे || |
शिखा कौशिक
भारतीय नारी
उबटन से ऊबी नहीं, मन में नहीं उमंग ।
पहरे है परिधान नव, सजा अंग-प्रत्यंग ।
सजा अंग-प्रत्यंग , नहाना केश बनाना ।
काजल टीका तिलक, इत्र मेंहदी रचवाना ।
मिस्सी खाना पान, महावर में ही जूझी ।
करना निज उत्थान, बात अब तक ना बूझी ।।
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मुंह से निकली बात , कमान से निकला तीर और सर के उड़े बाल -- कभी वापस नहीं आते ?
बाल बाल बचता रहा, किन्तु बाल की खाल ।
बालम के दो बाल से, बीबी करे बवाल ।
बीबी करे बवाल, बाल की कीमत समझे ।
करती झट पड़ताल , देख कंघी को उलझे ।
दो बालों में आय, हमारी साड़ी सुन्दर ।
बचे कुचे सब बाल, हार की कीमत रविकर ।।
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कुत्ते जैसा भौंकना, गिरगिट सा रंगीन ।
गिद्ध-दृष्टि मृतदेह पर, सर्प सरिस संगीन ।
सर्प सरिस संगीन, बीन पर भैंस सरीखा ।
कर्म-हीन तन सुवर, मगर अजगर सा दीखा ।
निगले खाय समूच, हाजमा दीमक जैसा ।
कुर्सी जितनी ऊंच, चढ़ावा चाहे वैसा ।।
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पुस्तक पहुंच रही है उसतक ?
नुक्कड़
नुक्कड़ पुश्तैनी *पुस परंपरा, पीती छुपकर दुग्ध |*बिल्ली पाठक पुस्तक पी रहे, होकर के अति मुग्ध | होकर के अति मुग्ध, समय यह शून्य काल का || गूढ़ व्यंग से दंग, मोल है बहुत माल का | वाचस्पति आभार, धार है तीखी पैनी | पूरा है अधिकार, व्यंग बाढ़े पुश्तैनी || |
बहुत खूब !
ReplyDeleteव्यंग के शून्यकाल का शून्य
किधर गया कुछ पता है क्या
होगा कहीं एक के पीछे लग कर
उसे दस बना रहा होगा
और अपना बैठ के लखनऊ में
आम चूस के खा रहा होगा !
वाह वाह ... ये तिप्पनियाओं के साथ चर्चा का मज़ा कुछ अलग ही है ...
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