Sunday, 5 August 2012

रचना ईश्वर ने रची, तन मन मति अति-भिन्न -रविकर

विवाह पूर्व यौन सम्बंध की त्रासदी


रचना ईश्वर ने रची, तन मन मति अति-भिन्न |
प्राकृत के विपरीत गर, करे खिन्न खुद खिन्न |

करे खिन्न खुद खिन्न, व्यवस्था खुद से करता |
करे भरे वह स्वयं, बुढापा बड़ा अखरता  |

नाड़ी में है ताब, आबरू की क्या चिंता |
अंत घड़ी जब पास, शुरू की गलती गिनता ||


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 आँखें पथराने लगीं, नहीं दीखता क़त्ल |
इज्जत चौराहे लुटी, भीड़ छुपाती शक्ल |


भीड़ छुपाती शक्ल, दृष्टि में निकट दोष है |
पड़ते पत्थर अक्ल, व्यवस्था रहा कोस है |


चेहरे हैं चैतन्य, आँख लेकिन पत्थर की |
चलिए करिए काम, जरुरत है दफ्तर की ||

मिली नहीं रोटी दो जून की

मनोज

पांचो वक्त नमाज के, आरत सुबहो-शाम |
न रहीम से रोटियां, न ही देते राम |


न ही देते राम, भूख से व्याकुल काया |
हो जाती है शाम, चाँद पर नून धराया |


जरा चढ़ा जो मांस, घूरते जालिम कैसे |
पाय अध-जली लाश, घाट पर कुक्कुर जैसे ||

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