जहर बुझी बातें करें, जब प्राणान्तक चोट । जहर-मोहरा पीस के, लूँ दारू संग घोट । लूँ दारू संग घोट, पोट न तुमको पाया।
मुझमे थी सब खोट, आज मै खूब अघाया ।
प्रश्न-पत्र सा ध्यान, लगाकर व्यर्थे ताका ।
हल्का जी हलकान, जाय घर-बाहर डांटा ।।
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BALAJI
यात्री का परिवार जब, कर स्वागत संतुष्ट ।
मेरा घर सोता मिले, बेगम मिलती रुष्ट ।
बेगम मिलती रुष्ट, नहीं टी टी की बेगम ।
बच्चे सब शैतान, हुई जाती वो बेदम ।
नियमित गाली खाय, दिलाये निद्रा टेन्सन ।
चार्ज-शीट है गिफ्ट, मरे पर भोगे पेन्सन ।
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रमिया का एक दिन.... (महिला दिवस के बहाने)
रमिया घर-बाहर खटे, मिया बजाएं ढाप ।
धर देती तन-मन जला, रहा निकम्मा ताप । रहा निकम्मा ताप, चढ़ा कर देशी बैठा | रहा बदन को नाप, खोल कर धरै मुरैठा । पति परमेश्वर मान, ध्यान न देती कमियां। लेकिन पति हैवान, बिछाती बिस्तर रमिया ।। |
स्वास्थ्य-लाभ अति-शीघ्र हो, तन-मन हो चैतन्य ।
दर्शन होते आपके, हुए आज हम धन्य ।
हुए आज हम धन्य, खिले घर-आँगन बगिया ।
खुशियों की सौगात, गात हो फिर से बढ़िया ।
रविकर सपने देख, आपकी रचना पढता ।
नित नवीन आयाम, समय दीदी हित गढ़ता ।।
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आशंका चिंता-भँवर, असमंजस में लोग ।
चिंतामणि की चाह में, गवाँ रहे संजोग ।
गवाँ रहे संजोग, ढोंग छोडो ये सारे ।
मठ महंत दरवेश, खोजते मारे मारे ।
एक चिरंतन सत्य, फूंक चिंता की लंका ।
हँसों निरन्तर मस्त, रखो न मन आशंका ।।
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अंकुश हटता बुद्धि से, भला लगे *भकराँध ।
भूले भक्ष्याभक्ष्य जब, भावे विकट सडांध । भावे विकट सडांध, विसारे देह देहरी । टूटे लज्जा बाँध, औंध नाली में पसरी ।। नशा उतर जब जाय, होय खुद से वह नाखुश । कान पकड़ उठ-बैठ, हटे फिर संध्या अंकुश ।। *सड़ा हुआ अन्न |
कितने हलवाई मिटे, कितने धंधे-बाज ।
नाजनीन पर मर-मिटे, जमे काम ना काज ।
जमे काम ना काज, जलेबी रोज जिमाये ।
गुपचुप गुपचुप भेल, मिठाई घर भिजवाये ।
फिर अंकल उस रोज, दिए जब केटरिंग ठेका ।
सत्य जान दिलफेंक, उसी क्षण दिल को फेंका ।।
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बंजारा चलता गया, सौ पोस्टों के पार ।
प्रेम पूर्वक सींच के, देता ख़ुशी अपार ।
देता ख़ुशी अपार, पोस्ट तो ग्राम बन गए ।
पा जीवन का सार, ग्राम सुखधाम बन गए ।
सर मनसर कैलास, बही है गंगा धारा ।
पग पग चलता जाय, विज्ञ सज्जन बंजारा ।
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मिलन आस का वास हो, अंतर्मन में ख़ास ।
सुध-बुध बिसरे तन-बदन, गुमते होश-हवाश ।
गुमते होश-हवाश, पुलकती सारी देंही ।
तीर भरे उच्छ्वास, ताकता परम सनेही ।
वर्षा हो न जाय, भिगो दे पाथ रास का ।
अब न मुझको रोक, चली ले मिलन आस का ।।
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एकत्रित होना सही, अर्थ शब्द-साहित्य ।
सादर करते वन्दना, बड़े-बड़ों के कृत्य ।
बड़े-बड़ों के कृत्य, करे गर किरपा हम पर । हम साहित्यिक भृत्य, रचे रचनाएं जमकर । गुरु-चरणों में बैठ, होय तन-मन अभिमंत्रित । छोटों की भी पैठ, करें शुरुवात एकत्रित ।। |
Naaz
वाह-वाह क्या बात है, भला दुपट्टा छोर ।
इक मन्नत से गाँठती, छोरी प्रिय चितचोर ।
छोरी प्रिय चितचोर, मोरनी सी नाची है ।
कहीं ओर न छोर, मगर प्रेयसी साँची है ।
रविकर खुद पर नाज, बना चाभी का गुच्छा ।
सूत दुपट्टा तान, होय सब अच्छा-अच्छा ।।
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उदासीनता की तरफ, बढे जा रहे पैर ।
रोको रोको रोक लो, करे खुदाई खैर ।
करे खुदाई खैर, लगो योगी वैरागी ।
दुनिया से क्या वैर, भावना क्यूँकर जागी ।
दर्द हार गम जीत, व्यथा छल आंसू हाँसी ।
जीवन के सब तत्व, जियो तुम छोड़ उदासी ।।
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संजय की दृष्टी सजग, जात्य-जगत जा जाग ।
जीवन में जागे नहीं, लगे पिता पर दाग ।
लगे पिता पर दाग, पालिए सकल भवानी।
भ्रूण-हत्या आघात, पाय न पातक पानी ।
निर्भय जीवन सौंप, बचाओ पावन सृष्टी ।
कहीं होय न लोप, दिखाती संजय दृष्टी ।।
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इष्ट-मित्र परिवार को, सहनशक्ति दे राम ।
रावण-कुल का नाश हो, होवे काम तमाम ।
होवे काम तमाम, अजन्मे दे दे माफ़ी ।
अमर पिता का नाम, बढ़ाना आगे काफी ।
इस दुनिया का हाल, राम जी अच्छा करिए ।
नव-आगन्तुक बाल, हाथ उसके सिर धरिये ।।
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प्यार मिले परिवार का, पुत्र-पिता पति साथ ।
देवी मुझको मत बना, झुका नहीं नित माथ ।
झुका नहीं नित माथ, झूठ आडम्बर छाये ।
कन्या-देवी पूज, जुल्म उनपर ही ढाये ।
दुग्ध-रक्त तन प्राण, निछावर सब कुछ करती ।
बाहर की क्या बात, आज घर में ही डरती ।।
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मनोज -
भाया ओज मनोज का, उल्लू कहती रोज ।
सम्मुख माने क्यूँ भला, देती रहती डोज ।
देती रहती डोज, खोज कर मौके लाती ।
करूँ कर्म मैं सोझ, मगर हरदम नखराती ।
मनोजात अज्ञान, मने मनुजा की माया ।
चौबिस घंटे ध्यान, मगर न मुंह को भाया ।।
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पिट्सबर्ग का भारती, है गिट-पिट से दूर ।
करे देश की आरती, देशभक्ति में चूर ।
देशभक्ति में चूर, सूंढ़ हाथी की शुभ-शुभ ।
औषधि तुलसी बाघ, कैक्टस जाती चुभ-चुभ ।
तरी मसालेदार, बाग़ में सजी रंगोली ।
रेल कमल बुद्धत्व, गजब वो खेले होली ।।
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प्रतियोगी बिलकुल नहीं, हैं प्रतिपूरक जान ।
इक दूजे की मदद से, दुनिया बने महान ।
दुनिया बने महान, सही आशा-प्रत्याशा ।
पुत्री बने महान, बाँटता पिता बताशा ।
बच्चों के प्रतिमोह, किसे ममता ना होगी ।
पति-पत्नी माँ-बाप, नहीं कोई प्रतियोगी ।।
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नैनी नैनीताल का, पढ़ सुन्दर वृतान्त ।
जीप भुवाली से चली, सफ़र खुशनुमा शाँत ।
सफ़र खुशनुमा शाँत, खाय फल आडू जैसा ।
कहिये किन्तु हिसाब, खर्च कर कितना पैसा ?
छत पर देखा पेड़, निगाहें बेहद पैनी ।
वाह जाट की ऐड़, अकेले घूमा नैनी ।।
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कन्या के प्रति पाप में, जो जो भागीदार ।
रखे अकेली ख्याल जब, कैसे दे आभार ।
कैसे दे आभार, किचेन में हाथ बटाई ।
ढो गोदी सम-आयु, बाद में रुखा खाई ।
हो रविकर असमर्थ, दबा दें बेटे मन्या *।
सही उपेक्षा रोज, दवा दे वो ही कन्या ।
*गर्दन के पीछे की शिरा
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जहर बुझी बातें करें, जब प्राणान्तक चोट ।
ReplyDeleteजहर-मोहरा पीस के, लूँ दारू संग घोट ।
लूँ दारू संग घोट, पोट न तुमको पाया।
मुझमे (मुझमें )थी सब खोट, आज मै खूब अघाया ।
प्रश्न-पत्र सा ध्यान, लगाकर व्यर्थे ताका ।
हल्का जी हलकान, जाय घर-बाहर डांटा ।। एक पोस्ट का इतना बड़ा कैनवास ,फलक रविकर ही ला सकतें हैं एक से बढ़के एक संक्षिप्त काव्यात्मक सार .वाह !
बढ़िया प्रस्तुति है कृपया यहाँ भी पधारे -
ram ram bhai
बृहस्पतिवार, 30 अगस्त 2012
अस्थि-सुषिर -ता (अस्थि -क्षय ,अस्थि भंगुरता )यानी अस्थियों की दुर्बलता और भंगुरता का एक रोग है ओस्टियोपोसोसिस
http://veerubhai1947.blogspot.com/
मेरे पोस्ट पर आपका काव्य मन को भा गया।
ReplyDeleteमेरे पुराने पोस्ट पर आपकी सटीक टिप्पणी अच्छी लगी,,,,,
ReplyDeleteबहुत ही बढिया।
ReplyDeleteबधाई गुप्ताजी सुन्दर लिंक - लिखाड़
ReplyDeleteभाई रविकर जी सभी पोस्टों पर आपने बहुत बढ़िया काव्यात्मक टिप्पणियाँ की हैं।
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