आज के कुछ और लिंक
आँख फाड़ कर देखना, ठंडी करना आँख - रविकर
स्मृति शिखर से – 18 : सावन
करण समस्तीपुरी
विवरण मनभावन लगा, सावन दगा अबूझ |
नाटक नौटंकी ख़तम, ख़तम पुरानी सूझ | ख़तम पुरानी सूझ, उलझ कर जिए जिंदगी | अपने घर सब कैद, ख़तम अब दुआ बंदगी | गुड़िया झूला ख़त्म, बची है राखी बहना | मेंहदी भी बस रस्म, अभी तक गर्मी सहना || |
"कबूतर कबूतर "
कोई चारा ना बचा, बेचारी यह कैट |
राजनीति की टोपियाँ, लगा हटा के हैट | लगा हटा के हैट, रही विश्वास जगाती | कर कुर्सी कुर्बान, बड़ी पावर पा जाती | आज कबूतर भक्त, बड़ी इज्जत करते हैं | अनुशासन है सख्त, कई पानी भरते हैं || |
महामहिम का घोड़ा
Sanjay Mahapatra
फुरसतनामा
यह घोडा बंदूक का, करे आर या पार ।
लेकिन ढाई घर चला, घर के लिए सवार ।
घर के लिए सवार, मौन मन कर बेगारी।
ढोया सारा भार, रहा बनकर व्यवहारी ।
रविकर जैसे गधे, सधे बन बड़े खिलाड़ी ।
पांच साल घुड़साल, ताकिये बैठ अगाड़ी ।। |
टिपण्णी कैसे करनी चाहिए ?
आमिर दुबई
पूरे विषय को पढ़कर, विभिन्न ब्लॉग पर, 10-12 अच्छी टिप्पणी करने के बाद एक आभार भी वापस नहीं मिलता तब दुःख होता है ।।
अर्थ टिप्पणी का सखे, टीका व्याख्या होय ।
ना टीका ना व्याख्या, बढ़ते आगे टोय ।
बढ़ते आगे टोय, महज कर खाना पूरी ।
धरे अधूरी दृष्टि, छोड़ते विषय जरुरी ।
पर उनका क्या दोष, ब्लॉग पर लेना - देना ।
यही बना सिद्धांत, टिप्पणी चना-चबैना ।। |
सावन आये सुहावन (शनिवार - फुर्सत में...) … करण समस्तीपुरीमनोजतरसे या हरसे हृदय, मास गर्व में चूर |कंत हुवे हिय-हंत खुद, सावन चंट सुरूर | सावन चंट सुरूर, सुने न रविकर कहना | राखी में मगरूर, पिया की जालिम बहना | लेती इन्हें बुलाय, वहाँ पर खुशियाँ बरसे | मन मेरा अकुलाय, मिलन को बेहद तरसे || |
राहुलजी आगे बढ़ो !!
हमरा-हुल्लड़ जात का , हम राहुल लड़ जात |
मसला टूटी खाट का, खा के जूठा भात | खा के जूठा भात , रात खटिया पर जागा | माया को औकात, बताने खातिर भागा | भाग-दौड़ सब व्यर्थ, फेल पप्पू हो जाता | राहुल जी मजबूत, हृदय हमरा दहलाता || |
बहुत बढिया ।
ReplyDeleteवाह: बहुत बढिया ।..
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteसभी को टिपिया दिया!
बढ़िया रविकर जी...बहुत बढ़िया...
ReplyDeleteसादर
अनु
बिना फाडे़ भी तो
ReplyDeleteकरवा सकते थे
आँख को ठंडा आप
फाड़ना क्यों जरूरी है जी
अच्छा जरूरी है
तो फाड़ लेंगे !
यह घोडा बंदूक का, करे आर या पार ।
ReplyDeleteलेकिन ढाई घर चला, घर के लिए सवार ।
घर के लिए सवार, मौन मन कर बेगारी।
ढोया सारा भार, रहा बनकर व्यवहारी ।
रविकर जैसे गधे, सधे बन बड़े खिलाड़ी ।
पांच साल घुड़साल, ताकिये बैठ अगाड़ी ।।
बहुत बढ़िया है .
टिप्पणी करना सच में एक कला है और बहुत कठिन भी पर यदि इससे किसी को खुशी मिलाती है तो इसमें बुराई क्या है ? आशा
ReplyDeleteदिनेश की दिल्लगी
ReplyDeleteकहाँ अंत में होती है
जहाँ होती है उस
जगह का अंत होती है
कुछ भी लिख ले जाये
कोई इसकी नजर से
कहाँ बच पाती है
दिख गया रविकर को
फिर चीर फाड़ करके
पोस्ट मार्टम कर के
कलम ले ही जाती है
रविकर की लेखनी
छू गयी जिस लिखे को
फिर ना दिल होता है
ना लगी होती है
दिल की लगी होती है
दिल्लगी हो जाती है !
हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई
ReplyDeleteब्लॉग जगत में जबसे आया
कुछ न कुछ लिखता ही आया
मन आनन्दित हो जाता है,जब कोई टिप्पणी मिल गई
हाय टिप्पणी व्यथा बन गई
कविता,गीत,लेख,लिख पाता
सौ-सौ बार ब्लॉग पर जाता
एक टिप्पणी ढूढ़ रहा हूँ ,गैरो की दस बीस हों गई
हाय ,टिप्पणी व्यथा बन गई
जिन ब्लागों पर मै हूँ जाता
और टिप्पणी करके आता
गणना उनकी करता रहता ,बीस किया उन्नीस मिल गई
हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई,,,
विक्रम जी की रचना,,,,
RECENT POST,,,इन्तजार,,,