Tuesday, 10 July 2012

जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय -


 दोहे 

पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।

शत्रु जान से मार दे,  आन रखूं महफूज ।
लांछन लगे चरित्र पर, तो उपाय क्या दूज ??
 
रविकर पूंजी नम्रता, चारित्रिक उत्कर्ष ।
दुर्जन होवे दिग्भ्रमित, समझ दीनता *अर्श ।।
*अश्लील 
 गलती पर मांगे क्षमा, वह अच्छा इन्सान  ।
बिन गलती जो माँगता, पाये वह अपमान ।।

 चबवाये नाकों चने, लहराए हथियार ।
 चनाखार था पास में, देता रविकर डार ।। 

किसी ने बताया कि उसे सीढी  के रूप में इस्तेमाल करने का फंडा  पुराना है ।
प्रत्युत्तर कुंडली में
  अलंकार भी देखें-
मतलब पेंट कर दिया है-

कभी झाड़ पर न चढूं, चना होय या ताड़ | 
 बड़ा कबाड़ी हूँ सखे, पूरा जमा कबाड़ |

पूरा जमा कबाड़, पुरानी सीढ़ी पायी | 
 जरा जंग की मार, तनिक उसमे अधमायी |

झाड़-पोंछ कर पेंट, रखा है उसे टांड़ पर | 
खा बीबी की झाड़, चढूं  न चना झाड़ पर ||



3 comments:

  1. रविकर पूंजी नम्रता, चारित्रिक उत्कर्ष ।
    दुर्जन होवे दिग्भ्रमित, समझ दीनता *अर्श ।।
    पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
    जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।

    वियोगी होगा पहला कवि ,आह से निकला होगा गान ,
    निकल कर अधरों से चुपचाप ,बही होगी कविता अनजान .सा भाव लिए है उल्लेखित दोहा .बहुत सुन्दर और मनोहर बन पड़ा है .
    मुश्किलें मुझपर पड़ी इतनी के आसां(आसान)हो गईं .

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  2. अरे ये क्या
    नजर आ रहा है
    रविकर क्या एक
    और स्वयंवर फिर
    रचा रहा है
    नजर ना लगे
    वाकई में दूल्हा
    नजर आ रहा है।
    (वैधानिक चेतावनी: बहूरानी को नजर नहीं है आनी
    इस टिप्पणी से दूर रखें)

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  3. किसी ने किसी बहाने आपको प्रेरित किया है,तभी अंदर से रचना बाहर भभककर निकल रही है.
    ..अहसान मानिये,ज्ञानपीठ भी पीठ पर लाद ही लीजिए !

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