दोहे
पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।
शत्रु जान से मार दे, आन रखूं महफूज ।
लांछन लगे चरित्र पर, तो उपाय क्या दूज ??
रविकर पूंजी नम्रता, चारित्रिक उत्कर्ष ।
दुर्जन होवे दिग्भ्रमित, समझ दीनता *अर्श ।।
*अश्लील
गलती पर मांगे क्षमा, वह अच्छा इन्सान ।
बिन गलती जो माँगता, पाये वह अपमान ।।
चबवाये नाकों चने, लहराए हथियार ।
चनाखार था पास में, देता रविकर डार ।।
किसी ने बताया कि उसे सीढी के रूप में इस्तेमाल करने का फंडा पुराना है ।
प्रत्युत्तर कुंडली में
अलंकार भी देखें-
मतलब पेंट कर दिया है-
कभी झाड़ पर न चढूं, चना होय या ताड़ |
बड़ा कबाड़ी हूँ सखे, पूरा जमा कबाड़ |
पूरा जमा कबाड़, पुरानी सीढ़ी पायी |
जरा जंग की मार, तनिक उसमे अधमायी |
झाड़-पोंछ कर पेंट, रखा है उसे टांड़ पर |
खा बीबी की झाड़, चढूं न चना झाड़ पर ||
रविकर पूंजी नम्रता, चारित्रिक उत्कर्ष ।
ReplyDeleteदुर्जन होवे दिग्भ्रमित, समझ दीनता *अर्श ।।
पीड़ा बेहद जाय बढ़, अंतर-मन अकुलाय ।
जख्मों की तब नीलिमा, कागद पर छा जाय । 1।
वियोगी होगा पहला कवि ,आह से निकला होगा गान ,
निकल कर अधरों से चुपचाप ,बही होगी कविता अनजान .सा भाव लिए है उल्लेखित दोहा .बहुत सुन्दर और मनोहर बन पड़ा है .
मुश्किलें मुझपर पड़ी इतनी के आसां(आसान)हो गईं .
अरे ये क्या
ReplyDeleteनजर आ रहा है
रविकर क्या एक
और स्वयंवर फिर
रचा रहा है
नजर ना लगे
वाकई में दूल्हा
नजर आ रहा है।
(वैधानिक चेतावनी: बहूरानी को नजर नहीं है आनी
इस टिप्पणी से दूर रखें)
किसी ने किसी बहाने आपको प्रेरित किया है,तभी अंदर से रचना बाहर भभककर निकल रही है.
ReplyDelete..अहसान मानिये,ज्ञानपीठ भी पीठ पर लाद ही लीजिए !