Thursday 17 January 2013

रोटी खाएं मुफ्त की, मुँह में लगी हराम-



आप कैसे तोड़ते हैं रोटी?
- राधा-रमण जी 
 
रोटी खाएं मुफ्त की, मुँह में लगी हराम ।
रोटी तोड़ें बाप की, है नहिं दूजा काम ।

है नहिं दूजा काम, रोज फ़ोकट में तोड़ें ।
बाप रहा फटकार, कहे माँ ठूस निगोड़े ।

भाई राधा-रमण, हमारी किस्मत खोटी ।
चार्वाक प्रभु -शरण, खिलाता रह तू रोटी ।। 


उनके घरों में शायद न होती हैं बेटियाँ


Kailash Sharma 


बेटे की टें टें सहो, नहीं *टेंट में माल ।
दाब सके नहिं **टेंटुवा, #टेंकाना दे टाल ।  

 टेंकाना दे टाल, माल सब हजम कर लिया ।
 आँखों की हो जांच, किन्तु नहिं फ्रेम ले दिया ।

रविकर बेटी नीक, युगल परिवार समेटे ।
है संवेदनशील, मस्त अपने में बेटे ।।
*कमर के पास खोंसी हुई धोती 
**गला 
#सहारा 

साथी *पहली बार जिसे पकड़ा था,वह था मेरा हाथ।और कहा था ,


पगले को सब ध्यान है, मिलन-विछोह *अनीह ।
जागृति हर एहसास है, पागल बना मसीह ।
पागल बना मसीह, छुड़ाकर हाथ गए जो ।
बाकी अब भी **सीह, डूब कर स्वयं गया खो ।
साठ वर्ष का साथ, मिलो फिर जीवन अगले ।
पकडूँ फिर से हाथ, मसीहा हम हैं पगले ।।
*बिन चेष्टा 
**खुश्बू 

व्याकुल वनिता वत्स, महाकामी *वत्सादन


हुआ भयानक हादसा, दिल्ली में वीभत्स

रौद्र-करुण उत्तेजना, व्याकुल वनिता-वत्स ।


व्याकुल वनिता वत्स, महाकामी *वत्सादन ।
अद्भुत सत्ताधीश, शांत-रस का उत्पादन ।


करे हास्य-श्रृंगार  , किन्तु फिर पाक अचानक ।

 काट गया दो शीश, वीर रस हुआ भयानक ।।
*भेड़िया 

अभिव्यंजना

काली-कलुषित नजर से, रहे सुरक्षित नारि |
बने सुरक्षित तंत्र अब, धरे ध्यान परिवारि |



धरे ध्यान परिवारि, विसारो पिछली बातें |
दुर्घटना से सीख, परख ले रिश्ते नाते |



ले उत्तर जह खोज, बनी हर नारि सवाली |
अगर करोगे देर, बनेगी ज्वाला काली ||

"नापतोलडॉटकॉम से कोई सामान न खरीदें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

   पूरी की पूरी ख़तम, विरादरी यह धूर्त |
धोखा छल कर-वंचना, करें गलत आपूर्त |



करें गलत आपूर्त, खर्च विज्ञापन पर कर |
लेते अधिक वसूल, फंसे जब रविकर गुरुवर |



रहिये सदा सचेत, बना कर रखो दूरी |
खाओ रोटी-दाल, तलो मत पापड़-पूरी |

6 comments:

  1. देह-दशा हलकान,बजट पड़ती है छोटी
    भूल नियम,खाता,पेट जब मांगे रोटी

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  2. सन्दर्भों से जुड़ा सामयिक लेखन .बधाई .

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  3. है नहिं दूजा काम, रोज फ़ोकट में तोड़ें ।
    बाप रहा फटकार, कहे माँ ठूस निगोड़े ।

    बढ़िया रविकर जी !

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